अपने में
क्या है
जिसे मानव खोज रहा है
धरती क्या कम थी
अब ख़ाक छानने लगा है
अन्य ग्रहों की भी
बस्तियाँ तक बसाने की सोच रहा है
क्या पाएगा
सागर की अतल गहराई में
या अंतरिक्ष की असीम ऊँचाई में
क्या है जो उसे
अपने में नहीं मिल सकता
सुना है
तपस्या करते थे ऋषिगण
और सारा हाल जान लेते थे
एक जगह बैठे-बैठे
कहते हैं,
सब कुछ तो मन में ही है
मन की गहराई में
पहले-पहले शोर सुनायी देता है
फिर संगीत
उसके बाद अंतहीन सन्नाटा
फिर भी बढ़ते रहो आगे तो
भेद खुल जाते हैं
कोई न कोई देवगण
राह में मिल जाते हैं
तृप्त हो जाता होगा मन
थम जाती होगी सारी खोज
जो जब चाहा हाज़िर हो जाता होगा
भर जाता होगा
एक मधुर संतोष भीतर
नयन मुस्काते होंगे
अधर गाते होंगे
थिरकते होंगे कदम
फूल बिखरते होंगे हर तरफ़
नींद आती होगी चैन की
स्वर्ग के आते होंगे
शायद स्वप्न भी !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें