चिकमगलूर डायरी
आज सुबह लगभग सात बजे हम बैंगलुरु से निकले थे, हमारा लक्ष्य था कर्नाटक का एक खूबसूरत पहाड़ी स्थान चिकमगलूर ! चिकमगलूर शब्द का अर्थ है छोटी बेटी का शहर. कहा जाता है कि इसे सखरायपटना के प्रमुख रुक्मंगदा की छोटी बेटी को दहेज में दिया गया था. हासन आने से पूर्व ही ‘पाकशाला’ में सुबह का नाश्ता ग्रहण किया; दोसा-इडली और कॉफ़ी।दोपहर बारह बजे तक हम चिकमगलूर पहुँच गये, गेटवे ताज होटल में कदम रखते ही लाइम कोल्ड कॉफ़ी से स्वागत किया गया। यहाँ चारों ओर हरे-भरे बगीचे, लॉन और विशाल वृक्ष लगाये गये हैं। पंछियों की आवाज़ें रह-रह कर आ रही हैं। चीड़ के एक वृक्ष के नीचे सुंदर छोटे कोन गिरे थे, गुड़हल के अनेक रंगों के बड़े-बड़े फूल अपनी ओर खींच रहे थे।स्विमिंग पूल भी है और बाहर व भीतर खेल खेलने के ढेर सारे इंतज़ाम।हमने कुछ देर ऊँचे विशालकाय वृक्षों को निहारते बिताया फिर भोजनालय का रुख़ किया।
दोपहर के भोजन के बाद तीन बजे हम श्री प्रसाद का कॉफ़ी बाग़ान देखने निकले। हरा-भरा बाग़ान काफ़ी बड़े इलाक़े में फैला था, पौधों पर हरे और लाल रंग के फल लगे थे, अधिक पके या कच्चे दोनों ही तरह के फलों से कॉफ़ी नहीं बनती।फल तोड़ने वाले मज़दूरों को पूरी जानकारी होनी चाहिए कि वे सही मात्रा में पका फल ही तोड़ें। यह सारा इलाक़ा कॉफ़ी की खेती के लिए जाना जाता है।हमारे गाइड श्री प्रसाद ने बड़े ही मनोयोग से इस बारे में कई जानकारियाँ साझी कीं।उन्होंने बताया, पहले-पहल इथियोपिया में चरवाहों को अपनी बकरियों के कारण इस पौधे की जानकारी मिली, जिसके फल खाकर वे ऊर्जा से भर जाती थीं। इसके बाद अरब देशों में इसकी खेती होने लगी। कर्नाटक में या कहें कि भारत में कॉफी का इतिहास 17वीं शताब्दी से शुरू होता है, जिसका श्रेय बाबा बुदन को जाता है, जो एक सम्मानित सूफी संत थे। मक्का की तीर्थयात्रा करते समय किसी तरह वे यमन से कॉफी के सात बीज लाए और उन्हें चंद्रगिरी पहाड़ियों की ढलानों पर लगाया, जिससे इस क्षेत्र में कॉफी की खेती की शुरुआत हुई।भारत से ही कॉफ़ी की जानकारी यूरोप में गई।
चिकमगलूर में अरबिका कॉफ़ी और कूर्ग में रोबस्टा क़िस्म उगायी जाती है।वैसे कॉफ़ी की सौ से अधिक क़िस्में हैं पर वे सभी इन दो मुख्य क़िस्मों में ही आती हैं। उनके बाग़ान में उगायी जाने वाली काफ़ी की फसल का नाम हेमावती अरबिका है। उन्होंने बताया कॉफ़ी का एक पौधा बीस से साठ वर्षों तक जीवित रह सकता है पर अधिक पुराना होने पर फल कम देता है, इसलिए पहले ही नये पौधे लगा दिये जाते हैं। बाद में श्री प्रसाद हमें अपनी कार्यशाला कम दुकान में ले गये। जहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के सूखे हुए कॉफ़ी के बींस दिखाए, उनके पाउडर से फ़िल्टर काफ़ी बनाकर भी सभी को चखने के लिए दी।यदि इसके फल को पूरा सुखाया जाता है, तो उन बीजों से बनी कॉफ़ी को फ़्रूटी कहते हैं, केवल बीजों को सुखाकर नटी कॉफ़ी तथा पूरी तरह धोकर सुखाए गये बीजों से चाकलेटी काफ़ी बनती है। फ़िल्टर कॉफ़ी बनाने के लिए एक ग्राम पाउडर में सोलह ग्राम गरम पानी धीरे-धीरे करके डालना चाहिए।इंस्टेंट कॉफ़ी बनाने के लिए फ़िल्टर की हुई कॉफ़ी को सुखाकर बनायी जाती है, तथा उसमें चिकोरी भी डाली जाती है। चिकोरी एक जड़ी-बूटी है, जिसकी जड़ को सुखाकर व भून कर पीसा जाता है। इसका स्वाद कॉफ़ी के स्वाद को बढ़ाता है, तथा गाढ़ा करता है। कॉफ़ी के बारे में इतनी सारी जानकारी पाकर सभी पर्यटक आनंदित थे।
संध्या का समय है।दूर से संगीत की आवाज़ आ रही है। इस समय हम होटल के कमरे में हैं। पुत्र व पुत्रवधू नीचे वाले कमरे हैं।कमरे में लिखने की मेज़ और सोफा भी है। बाहर बालकनी में भी कुर्सियाँ रखी हैं। चाय बनाने का समान और कुरमुरे स्नैक्स भी रखे हैं। सुबह बैंगलुरु से आते समय नारियल के एक वृक्ष के कई पत्तों पर श्वेत बगुलों की क़तारें देखी थीं, वह दृश्य जैसे मन में ठहर गया था, अभी-अभी आई पैड पर उसे बनाने का प्रयास किया। असली चित्र तो इससे अनेक गुणा सुंदर था।शाम को कॉफ़ी बाग़ान से लौटते समय हम अय्यनाकेरे झील देखने गये थे पर रास्ता भटक जाने के कारण कुछ देर से पहुँचे। हमने अभी झील के किनारे भ्रमण आरंभ ही किया था, कि एक पुलिस वाले ने आकर कहा, छह बजे समय सीमा समाप्त हो जाती है। अब गेट बंद किया जाएगा। हमने कुछ तस्वीरें उतारीं और कल सुबह पुन: आने की बात सोचकर वापस हो लिए। एक अमरूद वाला गेट के पास ही बैठा था, उससे दो अमरूद ख़रीदे, जो बेहद मीठे थे।
संगीत का स्वर और मधुर होता जा रहा था, हम उस स्थान की ओर गये, जहाँ एक युवा दंपत्ति नये-पुराने फ़िल्मी गीत गा रहे थे, हिन्दी और कन्नड़ भाषा के वे गीत भोजनालय से बाहर बरामदे में गाये जा रहे थे।गायक अपनी धुन में मस्त थे, संगीतकार अपनी धुन में, उन्हें इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि कोई उन्हें बैठकर सुन रहा है या नहीं, आते-जाते लोग कुछ देर ठहरकर अवश्य सुनते, फिर डिनर स्थल पर चले जाते। हमने भी रात्रि भोज के बाद आकर उन्हें आभार व्यक्त किया, जब वे अपने वाद्य समेट रहे थे।
अगले दिन सुबह जल्दी उठकर हम कर्नाटक की दूसरी सबसे बड़ी झील अय्यनाकेरे, जो चिकमगलूर शहर से 20 किलोमीटर दूर है, पुन: देखने आये। यह झील खेती के लिए पानी की आपूर्ति के लिए बनाई गई थी. इस झील के चारों ओर तीन पहाड़ हैं, जिनमें शकुनागिरी पहाड़ सबसे खूबसूरत है. यहाँ से बाबा बुदान रेंज की पहाड़ियाँ भी दिखायी देती है। इसका निर्माण सखरायपटना के शासक रुक्मांगदा राय ने करवाया था, जिसका जीर्णोद्धार ग्याहरवीं शताब्दी में हॉयसल शासकों ने करवाया। यहाँ का रख-रखाव देखकर बहुत निराशा हुई, लग रहा था काफ़ी दिनों से वहाँ सफ़ाई नहीं हुई है। पंछियों की उड़ान देखते और जल के कलकल स्वर को सुनते हुए झील पर सुबह का मनोरम समय बिताने के बाद हम बेलूर स्थित यागची नदी पर बना बाँध देखने गये। वहाँ का दृश्य अति मनोरम था। एक विशाल जलाशय दूर तक फैला था। जिसके किनारे-किनारे टहलने के लिए मार्ग बना था। इसके बाद हमने बेलूर स्थित चेन्नकेशवा मंदिर जाने का प्रयास किया पर गूगल की सहायता से हम वहाँ का मार्ग नहीं खोज पाये। ऐसे ही मुल्लायनगिरी पर्वत की चढ़ाई करने की हमारी योजना भी वहाँ के मंदिर में चल रहे एक उत्सव के कारण स्थगित करनी पड़ी है। इस तरह एक बार फिर इस सुंदर स्थान की यात्रा करने का निमित्त बन चुका है।
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जवाब देंहटाएंसुंदर यात्रा वृतांत।
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण आलेख आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर एवं ज्ञानवर्धक यात्रावर्णन
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