मन से कुछ बातें
मन ! निज गहराई में पा लो,
एक विशुद्ध हँसी का कोना
बरबस नजर प्यार की डालो
बहुत हुआ अब रोना-धोना !
किस अभाव का रोना रोते
उपज पूर्ण से नित्य पूर्ण हो,
सदा संजोते किस कमी को
खुद अनंत शक्ति का पुंज हो !
स्वयं ‘ध्यान’ तुम ‘ध्यान’ चाहते
लोगों का कुछ ‘ध्यान’ बँटाकर
निज ताक़त को भुला दिया है
इधर-उधर से माँग-माँग कर !
आख़िर कब तक झुठलाओगे
अपनी महिमा के पर्वत को,
नज़र उठाकर ऊपर देखो
उत्तंग शिखर छूता नभ को !
रोज-रोज का वही पुराना
छोड़ो भी अब राग बजाना,
कृष्ण बने सारथी तुम्हारे
कैसे कोई चले बहाना !
वाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार पम्मी जी !
जवाब देंहटाएंये आत्मचिंतन आत्मन्वेषण से ही संभव है , पर हम इस ओर शायद ही कभी ध्यान देते है और दुःख के भागी हो रोते है । यदि हम नित ऐसे विचारों से प्रेरित हो अपने नित्य कर्त्तव्य - कर्मों में प्रवृत हो तो अवश्य ही ईश्वर भी हमारी सहायता करेंगे ।
जवाब देंहटाएंअवश्य, आपकी सकारात्मक टिप्पणी अति प्रेरणादायक है, स्वागत व आभार !
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