‘को’ नहीं ‘की’
हम भगवान ‘को’ मानते हैं
भगवान ‘की’ नहीं मानते !
भगवान ‘को’ मानते हैं
पर हम चलाते अपनी हैं
भगवान ‘की’ मानने से
निष्काम कर्म करना है
उनके कर्म में हाथ बँटाकर
इस जगत में सुंदर रंग भरना है
जगत जो अभी हो रहा है
परमात्मा ही जगत के रूप में
नये-नये रूप धर रहा है
उसकी मानें तो हम उसी के रूप हैं
उसी के गुण हमें धारने हैं
स्वयं को संवरते हुए, देखना है
प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों में
उसकी ही छवि को
धरा पर पुष्प और
गगन पर रवि को
तब वही हमारे द्वारा कर्म करता है
यह सब भगवान ‘की’ मानने से घटता है !
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