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रविवार, नवंबर 10

गोपी पनघट-पनघट खोजे

गोपी पनघट-पनघट खोजे


सुंदरता की खान छिपी है 

प्रेम भरा कण-कण में जग के , 

छोटा सा इक कीट चमकता 

रोशन होता सागर तल में !


बलशाली का नर्तन अनुपम 

भीषण पर्वत, गहरी खाई, 

अंतरिक्ष अगाध गहरा है 

क़ुदरत जाने कहाँ समाई !


खोज रहे हैं कब से मानव 

महातमस छाया है नभ में, 

शायद पा सकते हैं उसको 

धरित्री के भीतर अग्नि में !


नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों 

गोपी पनघट-पनघट खोजे, 

उसके भीतर छिपा हुआ है 

घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !


रस्ता भटक गया जो राही 

भटक-भटक कर ही पहुँचेगा, 

गिरते-पड़ते, रोते-हँसते 

अपनी भूलों से सीखेगा !


बुधवार, फ़रवरी 22

किंतु न जानूँ पथ पनघट का


किंतु न जानूँ पथ पनघट का

पंथ निहारा, राह बुहारी 

लेकिन तुम आए नहीं श्याम, 

नयन बिछाए की प्रतीक्षा 

बीत गए कई आठों याम !


अंतर में संसार भरा था 

शायद तुम एकांत  निवासी, 

कहाँ बिठाती इस दुविधा से 

बचा गए मुझको घनश्याम !


अब यह सूनापन भाता है 

हर आहट पर हृदय धड़कता, 

एक नज़र ही पा जाए मन 

नहीं औरों से मुझको काम !


नगरी तेरी दूर  नहीं है 

किंतु न जानूँ पथ पनघट का, 

जीवन की संध्या  घिर आयी 

कब दर्शन  मिले  मनोभिराम !


मंगलवार, अगस्त 30

वैरी भी उन्हें नहीं मिला है




वैरी भी उन्हें नहीं मिला है

तृषा तुम्हारी शांत हुई है
पनघट पर कोई प्यासा भी,
तृप्ति के तुम गीत गा रहे
क्षुधा शेष है अभी किसी की !

मंजिल तक तुम पहुंच चुके हो
पीछे लेकिन पंक्ति बड़ी है,
मुड़ कर जरा निहारो उनको
जिनकी आशा अभी बड़ी है !

चाँद तुम्हें निकट लगता है
 घिरा कहीं है अभी अँधेरा,
बिखरी होंगी स्वर्ण रश्मियाँ
मिला किसी को नहीं सवेरा !

हो समर्थ पर यह न भूलो
कितनों की आशीष मिली थी,
किसी ने पथ के कंटक बीने
अश्रु की कहीं नमी खिली थी !

अमर प्रेम की गाथा लिखते
बैरी भी उन्हे नहीं मिला है,
गीत स्वर्ग के गाते हो तुम
अभी-अभी तो नर्क मिला है !