गुरुवार, अक्तूबर 14

शरद की एक संध्या

शरद की एक साँझ

भीगी-भीगी दूब ओस से
हरीतिमा जिसकी लुभाती
शेफाली की मोहक सुरभि
झींगुर गान सँग तिर आती I

शरद काल का नीरव नभ है
रिक्त मेघ से, दर्पण जैसा
दमक रहा साँझ का तारा
चन्द्र बना सौंदर्य गगन का I

हल्की हल्की ठंडक प्यारी
सन्नाटे को सघन बनाती
पेड़ों, पौधों की छायाएं
उपवन रहस्यमयी बनातीं I

नन्हें नन्हें कीट दूब में
श्वेत पतंगे ज्योति खोजते
नवरात्रि पूजा मंगल स्वर
छन के आते मंदिर पट से I

एक और आवाज गूंजती
नीरवता को भंग कर रही
बिजली गुम हो गयी लगती है
जेनरेटर की धुन बज रही !

अनिता निहालानी
१३ अक्तूबर २०१०

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस जेनरेटर की आवाज़ ने तो रंग में भंग कर दिया!

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  2. अनीता जी ,

    हमेशा की तरह बहुत सुन्दर कविता..........एक समां सा बंद गया था .....नीलेश जी ने ठीक कहा ये जनरेटर बीच में कहाँ से आया ?

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  3. सचमुच, आपने बिलकुल सही कहा! लेकिन मैंने उसे भी धुन मान कर भंग होते होते बचा लिया, सदगुरु यही तो सिखाते हैं!

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