ज्योति बरसती पावन घन की
क्यों पीड़ा के बीज बो रहे,
मन की इस उर्वर माटी में,
खुद सीमा में कैद हो रहे
जीवन की गहरी घाटी में !
अंकुर फूटा जिस पल दुःख का,
क्यों नष्ट किया न, हो सचेत
झूठे अहंकार के कारण
क्यों जला दिया न, थे अचेत?
पनप रहा अब वृक्ष विषैला,
सुख-दुःख फल से भरा हुआ,
क्यों छलना से ग्रसित रहा मन
क्यों काटा न जब समय रहा I
केवल एक दिव्य जागरण
दूर करेगा पीड़ा मन की,
झील से गहरे इस अंतर में
ज्योति बरसती पावन घन की !
स्वयं के भीतर गहन गुफाएँ
छिपा हुआ जल स्रोत जहाँ,
प्यास बुझाता जो अनंत की
ऐसा इक मधु स्रोत वहाँ !
अनिता निहालानी
१३ दिसंबर २०१०
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर......ये पंक्तियाँ पसंद आयीं-
क्यों पीड़ा के बीज बो रहे,
मन की इस उर्वर माटी में,
खुद सीमा में कैद हो रहे
जीवन की गहरी घाटी में !
स्वयं के भीतर गहन गुफाएँ
जवाब देंहटाएंछिपा हुआ जल स्रोत जहाँ,
प्यास बुझाता जो अनंत की
ऐसा इक मधु स्रोत वहाँ !
सम्पूर्ण जीवन दर्शन को एक कविता में उतार दिया...बहुत गहन भावपूर्ण प्रस्तुति..आभार
लगता है ईश्वर छुपाछुपी का खेल खेल रहा है जब प्यास बहुत बढ़ जायेगी तब मधुस्रोत की तरफ नजर पड़ेगी हमारी.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंआपकी कविता भावों की गहराई तक पहुँच पाने में समर्थ है ,
आपकी ये पंक्तियाँ ,आप स्वयं देखिये ,
स्वयं के भीतर गहन गुफाएँ
छिपा हुआ जल स्रोत जहाँ,
प्यास बुझाता जो अनंत की
ऐसा इक मधु स्रोत वहाँ !
आभार,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ