पल-पल पूजित ज्यों देवालय !
परे विचारों, भावों से है  
जो शब्दों में कहा न जाये, 
लेन-देन न जिसका संभव 
अनुभव से ही जिसको पाएँ ! 
निमिष मात्र में मिल सकता जो  
परों से हल्का, फूल से कोमल, 
छूकर देखें शून्य गगन को 
इतना पावन, इतना निर्मल ! 
वह अनंत, नित फ़ैल रहा है 
अविचल जैसे महा हिमालय, 
सदा से है और सदा रहेगा 
पल-पल पूजित ज्यों देवालय !
जल जैसे लहर बन जाता 
कभी बूंद बन हमें भिगाता,
वही सरोवर बन लहराता 
भेद न उस का जाना जाता ! 
अनजाने ही हमें लुभाता 
बना बहाने निकट बुलाता 
जिसके होने से ही हम हैं  
सोये जग वो सदा जगाता ! 
अनिता निहालानी 
१० जनवरी २०११ 
 
बहुत खूबसूरत रचना ...मंदिर की घंटियों की तरह
जवाब देंहटाएंअनजाने ही हमें लुभाता बना बहाने निकट बुलाता जिसके होने से ही हम हैं सोये जग वो सदा जगाता
जवाब देंहटाएं! आपका लेखन उत्कृष्ठ है -
बहुत सुंदर रचना -
बधाई स्वीकार करें -
आपने सच्चे देवालय का पता बताया है ....वर्ना लोग कहाँ कहाँ भटक रहे है ......बहार ढूंढ रहे .....भीतर की तरफ मुड़ने पर ही वो देवालय मिलेगा....अति सुन्दर रचना....
जवाब देंहटाएंसंगीताजी, बहुत दिनों के बाद आपकी उपस्थिति भली लग रही है, मंदिर की घंटियाँ भी तो जगाने का काम करती हैं ! आप सभी का आभार !
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