गुरुवार, सितंबर 22

फिर से वह गंगा कहलाये


फिर से वह गंगा कहलाये


है सहज स्वीकार जहां सब
केवल वह उसका ही दर है,
विवश हुआ सा हामी भर दे
ऐसा यह बंदे का घर है !

कोई नहीं आग्रह उसका
बनें कुसुम या कांटे हम,
दुनिया अपने कहे चलेगी
यह विश्वास समेटे हम !

गिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
इक दिन उससे मिलना होगा,
स्वयं को जब तक खुदा मानते
तब तक निश-दिन जलना होगा !

फूलों, बादल, पंछी हाथों
पल-पल भेज रहा संदेशे,
शेयर के गर दाम न बढे
घबराए हम इस अंदेशे !

गंगा से जल पृथक हुआ जो
सड़ जाता है काम न आए
पुनः जा मिला जब धारा में
फिर से वह गंगा कहलाये !





7 टिप्‍पणियां:

  1. गिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
    इक दिन उससे मिलना होगा,
    स्वयं को जब तक खुदा मानते
    तब तक निश-दिन जलना होगा !

    सुन्दर रचना.......शानदार|

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  2. वाह वाह शानदार भावाव्यक्ति।

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  3. गहन भावों की अभिव्यक्ति बधाई

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  4. गहन भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...अभार..

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  5. गजब ,अच्छी लगी अभिव्यक्ति |

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  6. गिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
    इक दिन उससे मिलना होगा,
    स्वयं को जब तक खुदा मानते
    तब तक निश-दिन जलना होगा !

    गहन अभिव्यक्ति ..सुन्दर रचना ..

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