शुक्रवार, अक्तूबर 7

कोई है


कोई है

सुनो ! कोई है
जो प्रतिपल तुम्हारे साथ है
तुम्हें दुलराता हुआ
सहलाता हुआ
आश्वस्त करता हुआ !

कोई है
जो छा जाना चाहता है
तुम्हारी पलकों में प्यार बनकर
तुम्हारे अधरों पर मुस्कान बनकर
तुम्हारे अंतर में सुगंध बनकर फूटना चाहता है ! 

कोई है
थमो, दो पल तो रुको
उसे अपना मीत बनाओ
खिलखिलाते झरनों की हँसी बनकर जो घुमड़ रहा है
तुम्हारे भीतर उजागर होने दो उसे ! 

कोई है
जो थामता है तुम्हारा हाथ हर क्षण
वह अपने आप से भी नितांत अपना
बचाता है अंधेरों से ज्योति बन के समाया है तुम्हारे भीतर
उसे पहचानो
सुनो ! कोई है

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर
    मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ||
    शुभ विजया ||

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  2. सही कहा ..कोई है ..अच्छी लगी रचना शुभकामनाएं.

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  3. बस उसी कोई को ही तो जानना है उसी के पीछे उम्र भर दौडता है कस्तूरी हिरण की तरह मगर अपने अन्दर ही है वो यही नही जान पाता।

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  4. हाँ,उस कोई में ही तो सब कुछ है,उसके बिना तो पूरी दुनिया बेमानी है.

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  5. कोई है
    जो थामता है तुम्हारा हाथ हर क्षण
    वह अपने आप से भी नितांत अपना
    बचाता है अंधेरों से ज्योति बन के समाया है तुम्हारे भीतर
    उसे पहचानो
    सुनो ! कोई है


    वाह......सुन्दर |

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  6. ऐसे ‘कोई’ को लपक कर हाथ थाम लेना चाहिए। बहुत कम ही कोई मिलता है आत्मीयता के साथ।

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  7. नीरज जी, जब कुछ समझ न आये वही पल विश्राम का होता है.. मन रुक गया बुद्धि चकरा कर थम गयी और तब भीतर जो खालीपन है उसमें ही टिक जाएँ...ध्यान की झलक मिल सकती है..

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