शनिवार, अगस्त 11

डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला की कवितायें


जीती रही जन्म जन्म
पुनश्च मरती रही,
मर मर जीती रही पुनः
चलता रहा सृष्टिक्रम
अंतविहीन पुनरावृत्ति क्रमशः

यह पंक्तियाँ पढ़कर आपको अवश्य डॉक्टर नूतन की याद हो आयी होगी. यही हैं हमारी अगली कवयित्री, खामोश ख़ामोशी और हम में इनकी छह रचनाएँ हैं. देहरादून में जन्मी नूतन श्रीनगर उत्तराखंड की निवासिनी हैं. इनके पति भी डॉक्टर हैं. मेडिकल व्यवसाय से जुड़ी इनकी कई रचनाएँ इनके ब्लॉग में हम सभी ने पढ़ी हैं.
पहली कविता नागफनी और गुलाब में ईर्ष्या के भाव से मुक्त होने का लाजवाब सूत्र मिलता है-
...
एक दिन नागफनी एकांत से झुंझला कर
ईर्ष्या से बोला
ऐ गुलाब !
घायल तू भी करता है अपने शूलों के दंश से
फिर भी सबका प्रिय है तू अपने फूलों और गंध से
...
लेकिन मुझमें ही ज्यादा ऐब हों ऐसा मुझे ज्ञान नहीं
..
फिर भी मैं निर्वासित हूँ माली द्वारा परित्यक्त हूँ
....
सुन कर गुलाब ने चुप्पी तोड़ी
धीमे से बोला
मुझको करता है माली बेहद प्यार इससे मैं अनभिज्ञ नहीं
फिर भी जाने क्यों मैं माली का कृतज्ञ नहीं
...
चढ़ा दिया जाता हूँ मैं देवताओं के शीश पर
मेरे खिलते सुकुमार सुमन
...
इन सबके बीच मुझे बस खोना है
उनकी इच्छाओं के लिये मुझे तो सिर्फ अर्पित होना है
...
मुझे नहीं मिल पाया मेरा खुला आसमान मेरी जमीन
मैं बंद दीवारों में घुटता रहा हूँ तू कर यकीन

..
ऐ नागफनी
देख तू ना बंधा है इस सुंदर दिखने वाली कैद में
मिला तुझे अपना एक विस्तृत संसार माली रूपी मोक्षद से
..
जुझारू तेरे निहित गुण से ऊर्जस्वी हो गया है तू
प्रस्फुटित होते पुष्प तुझ पर, खुद मुकुलित हो गया है तू
...
गुलाब की बातों पर नागफनी खुशी से मुस्कराया

दूसरी कविता मौन बातें ध्यान के अनुभव से उपजी प्रतीत होती है-
भीतर मौन है, कभी मन अशान्त होता है तो यही मौन की निधि उसे शांत करती है

बातें
बेहिसाब बातें
हलचल मचा देती हैं
नटखट मछलियों सी
मन के शांत समन्दर में
....
बेसुध मैं अनंत शांत यात्रा में
..
लेकिन जब
मन रहता है मौन
और शब्द बिन आवाज
बोलने लगते हैं कुछ
...
छिड़ जाता है एक संग्राम
उनके कटु शब्दों का
..
तब बलिदानी होता है
मौन
...
करता है शांति का पुनर्स्थापन

खुद से खुद की बातें में कवयित्री आत्मालोचन करती है...

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है
कभी ईर्ष्या उफनती
कभी लोभ, क्षोभ
..
पर न कभी हारी हूँ कभी
...
क्योंकि रोशन दीया
था सँग मेरे
मेरी रूह में ईश्वर का बसेरा है

वह स्त्री और चित्रकार तथा तुम बदले न हम दोनों प्रेम के भिन्न रूपों को चित्रित करती हैं

वह एक कलाकार था एक चित्रकार
...
बदला था दिल
बदल गए थे पात्र
महज कुछ तूलिकाएं जो जुड़ी थीं उस स्त्री की यादों से
फेंक दी गयीं
...
निशब्द थी स्र्त्री, मौन अवाक
...
और वह मूक जलती रही
तीव्र प्रेम की वेदना में धुँआ धुँआ होती रही
...
कहती थी वह
चित्रकार तू जलाता रह
..
और नए रंगों को, नयी आकृतियों को अपने कैनवास में पनाह दे
...

तुम न बदले न हम में उम्र के साथ साथ सम्बन्धों में आये परिवर्तन का जिक्र है-

समय का पहिया
घूमता, फैलता, खींचता, समय
बढती उमर  
...
तुम वही हो
पर कितने बदल गए हो
और तुम्हारा नजरिया बदल गया है
...

पर
खुद को समझी नहीं मैं
शायद नजरिया मेरा ही बदल गया है
धुधला रही हैं नजरें मेरी
एक झुर्री भी इठला रही माथे पर मेरे
और मुझे मोटा चश्मा चढ़ गया है

सहज, सरल शब्दों से पिरोयी नूतन जी की भावपूर्ण कवितायें पढ़कर पाठकों को रस का अनुभव होगा, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है.






15 टिप्‍पणियां:

  1. ्बहुत खूबसूरत समीक्षा की है ………बधाई

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  2. BAHUT SUNDAR SMIKSHA....WAKAI MEIN NUTAN JI AIK SAMWEDANSHEEL KAVIYATRI KE SATH-SATH EK SAMVEDANSHEEL DR. BHI HAI...KYUKI MAIN INSE RU-B RU HO CHUKI HOON..

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  3. सुंदर समीक्षा की है ………बधाई!

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  4. बहुत अच्छी समीक्षा की है आपने।

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  5. नूतन जी की कवितायें प्रभावित करती है.. आपने उसकी पुष्टि कर दी है .

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  6. नूतन जी का लेखन सदैव अपने नूतन रूप में प्रभावित करता रहा है. बहुत सुन्दर समीक्षा...आभार

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  7. मुझे आपके ब्लॉग में खामोश, ख़ामोशी और हम पर लिखी अपनी कविताओं की समीक्षा देख कर आश्चर्य और अपार हर्ष हुआ ... आपका सहृदय धन्यवाद

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  8. वन्दना जी, शालिनी जी, मनोज जी, कैलाश जी,शिखा जी, आशा जी, अमृता जी, शिवनाथ जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  9. डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला की कवितायें स्वयं में अनूठी काव्य रचना हैं. कहीं प्रकृति की जीवन,मरण और फिर जीवन प्रक्रिया की अविराम झलक मिलती है तो कहीं चित्रकार से एक उलाहने की झलक मिलती है जहाँ चित्रकार कैनवास पर पुराने चेहरे और रंगों को भूलकर नये रंगों और नई तूलिकाओं से नए चेहरों को चित्रांकित करता है.
    मन में सोचा कौन है वह चित्रकार तो हर चित्रकार में उसकी झलक नजर आई. लेकिन मन नहीं माना और गहराई में जाना चाहा तो लगा कि नूतन जी का इशारा तो उस महान चितेरे की ओर है जो की प्रकृति के कैनवास पर पुराने चेहरों को भुलाकर नए रंगों और अपनी नयी तूलिकाओं से नए चेहरों के जीवन्त सृजन में लगा रहता है. इस कविता में उस महान चित्रकार से एक दर्द भरा उलाहना बहुत ही सटीक लगा. बहुत सुंदर . . . . .
    उनकी अन्य कविताओं में भी सजीव, सटीक एवं भाव भीनी भाषा मन को छू लेती है.

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  10. नूतन जी बेहद सुन्दर भाव... जीवन की शास्वत प्रक्रिया में काल चक्र के बंधन की विवशता को कोमल बिम्बो में से सजाया आपने ...शुभ कामनाएं

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