मंगलवार, अक्तूबर 16

रौशनी थी हर कहीं




रौशनी थी हर कहीं


कुछ कहा हमने नहीं
सुन लिया उसने कहीं,
तार कोई थी जुड़ी
देख जग पाता नहीं !

एक तितली पास आ
इक सँदेसा दे गयी,
एक बदली सूर्य से
उतार ओढ़नी गयी !

डालियाँ सजने लगीं
दूब में भी आभ थी,
कोहरे बहने लगे
रौशनी थी हर कहीं !

सरल मुद्रा में मनस
गोपियों सी सादगी,
उतर शिखरों से बहे
घाटियों सी शामनी !

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.10.18 को चर्चा मंच पर प्रस्तुत चर्चा - 3128 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  2. प्रकृति के हर रंग को सजा के लिखी उत्तम रचना ...
    गहरे आध्यात्म से तारतम्य बैठाती ...

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  3. स्वागत व आभार दिगम्बर जी !

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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