शुक्रवार, जनवरी 29

बहा करो उन्मुक्त पवन सम

बहा करो उन्मुक्त पवन सम 



अनल, अनिल, वसुधा, पानी से 

जीवन का संगीत उपजता, 

मिले-जुले सब तत्व दे रहे 

संसृति को अनुपम समरसता !


हर कलुष मिटाती कर पावन

चलती फिरती आग बनो तुम, 

अपनेपन की गर्माहट भर 

कोमल ज्योतिर राग बनो तुम !


बहा करो उन्मुक्त पवन सम 

सूक्ष्म भाव अनंत के धारे,  

सारे जग को मीत  बनाओ 

शुभ सुवास के बन फौवारे ! 


ग्रहण करे उर साम्य-विषमता 

वसुंधरा सा पोषण देकर, 

प्रेम उजास बहे अंतर से 

इस जग का सहयोगी बनकर !


नई दृष्टि  से जग को देखो 

सहज ऊर्जा को बहने दो, 

मनस  बने अब धार नीर की 

कर साकार मधुर स्वप्नों को !


जितना दिया अधिक मिलता है 

सुख से जीवन भरपूर करो, 

खुले हृदय से ग्रहण करो फिर 

हो गुजर स्वयं से दूर करो !


रात-दिवस यह कहने आया 

विश्व नागरिक बन जीना है, 

अब सीमा आकाश ही बने 

जब घर धरती का सीना है !


 

12 टिप्‍पणियां:

  1. नई दृष्टि से जग को देखो
    सहज ऊर्जा को बहने दो,
    मनस बने अब धार नीर की
    कर साकार मधुर स्वप्नों को ....
    प्रभावशाली व भावपूर्ण संयोजन। ।।।।। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया।।।

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  2. जितना दिया अधिक मिलता है

    सुख से जीवन भरपूर करो,

    खुले हृदय से ग्रहण करो फिर

    हो गुजर स्वयं से दूर करो.. बहुत ही सारगर्भित पंक्तियां..सार्थक संदेश भरी रचना..

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को   "कंकड़ देते कष्ट"    (चर्चा अंक- 3963)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  4. "रात-दिवस यह कहने आया

    विश्व नागरिक बन जीना है,

    अब सीमा आकाश ही बने

    जब घर धरती का सीना है !"


    बहुत अच्छी बात कही आपने।

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  5. कितनी सुन्दरता से आप सबों का हृदय खोल कर भाव ग्रहण भी करवा देतीं हैं ।

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