भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कोई अपनों से भी अपना 
निशदिन रहता संग हमारे,
मन जिसको भुला-भुला देता 
जीवन की आपाधापी में !
कोमल परस, पुकार मधुर सी 
अंतर पर अधिकार जताता,
नजर फेर लें घिरे मोह में 
प्रीत सिंधु सनेह बरसाता !
साया बनकर साथ सदा है 
नेह सँदेसे भेजे प्रतिपल,
विरहन प्यास जगाये उर में 
बजती जैसे मधुरिम कलकल  ! 
अखिल विश्व का स्वामी खुद ही 
रुनझुन स्वर से प्रकट हो रहा,
भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कैसा अद्भुत नाद गूँजता ! 
कान लगाओ, सुनो जागकर 
वसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे 
नदियों के भंवर भाते हैं !
जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के 
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! 

 
कान लगाओ, सुनो जागकर
जवाब देंहटाएंवसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे
नदियों के भंवर भाते हैं !
जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! जीवन संदर्भ का सुंदर भावपूर्ण वर्णन ।
बहुत ही उम्दा सृजन!
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