शुक्रवार, नवंबर 26

जाग भीतर कौन जाने

जाग भीतर कौन जाने  


एक का ही है पसारा

गुनगुनाता जगत सारा,

निज-पराया, अशुभ-शुभता,

स्वप्न में मन बुने कारा !


मित्र बनकर स्नेह करता 

शत्रु बन खुद को डराता, 

जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?

सकल पल में हवा होता !


जगत भी यह रोज़ मिटता 

आज में कल जा समाता, 

अटल भावी में  यही कल 

देखते ही जा सिमटता !


नींद में किस लोक में था 

भान मन को कहाँ होता,   

जाग भीतर कौन जाने  

खबर स्वप्नों की सुनाता !


अचल कोई कड़ी भी है  

जो पिरोती है समय को, 

जिस पटल पर ख़्वाब दिखते 

सदा देती जो अभय को !


क्या वही अपना सुहृद जो 

रात-दिन है संग अपने, 

जागता हो हृदय या फिर 

रात बुनता मर्त्य सपने !


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