चाह जब जागे मिलन की
निज आत्म में जागना है
न कि जगत से भागना है,
मिला बाहर, वही भीतर
नहीं अब कुछ माँगना है !
भाव अपना शुद्ध हो जब
प्रेम रस भीतर रिसेगा,
मधुर प्रकाश ज्योत्सना का
सहज उर से छन बहेगा !
श्रद्धा की भूमि ह्रदय में
पुष्प कोमल भावना के,
चाह जब जागे मिलन की
भाव हों आराधना के !
वह अदेखा, वह अजाना
निकट से भी निकट लगता,
सुरभि सुमिरन की अनोखी
पोर-पोर प्रमुदित होता !
माँग जो भी, वह मिला है
तुझसे न कोई गिला है,
कभी कुम्हलाया न अंतर
जिस घड़ी से यह खिला है !

चाह जब जगे मिलन की सबरस रंग खिले अंतर में प्रभु प्रेम से जोड़ती बड़ी ही निर्मल भाव
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