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सोमवार, अगस्त 20

पुनः पुनः मिलन घटता है




पुनः पुनः मिलन घटता है



निकट आ सके कोई प्रियतम
तभी दूर जाकर बसता है !

श्वास दूर जा नासापुट से
अगले पल आकर मिलती है,
आज झरी मृत हो जो कलिका
पुनः रूप नया धर खिलती है !

बार–बार घट व्याकुल होकर
पाहुन का रस्ता तकता है,
उस प्रियजन का निशिवासर जो
नयनों में छुपकर हँसता है !

घर से दूर हुए राही को
स्वप्नों में आंगन दिसता है,
मेघ चले जाते बिन बरसे
मरुथल में सावन झरता है !