जीवन बीता ही जाता है
ज्वालामुखी दबे हैं भीतर
काश ! हमें सावन मिल जाता,
रिमझिम-रिमझिम बूँदों से फिर
अंतर का उपवन खिल जाता !
बाहर अंबर बरस रहा है
भू हुलसे पादप हँसता है,
किंतु गई पीर नहीं मन की
जीवन बीता ही जाता है !
यूँ तो अंचल में हैं ख़ुशियाँ
कोई कहीं अभाव नहीं है,
लेकिन फिर भी उर के भीतर
कान्हा वाला भाव नहीं है !
काव्यकला में ह्रदय न डूबे
मोबाइल से नज़र न हटती,
फ़ुरसत कहाँ घड़ी भर उसको
हर द्वारे से दुनिया आती !
कैसे अंतर रस में भीगे
कैसे सावन की रुत भाये,
जीवन भी जब फिसला जाता
मौत का ताँडव यही रचाये !
वाह
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