रविवार, जनवरी 22

वह और हम


वह और हम

जब परमात्मा हमारे द्वार पर खड़ा होता है
हम नजरें झुकाए भीतर उसे पत्र लिख रहे होते हैं
भोर की पहली किरण के साथ हर सुबह जब
वह हमें जगाने आता है
करवट बदल कर हम मुँह ढक के सो जाते हैं
जब किसी के अधरों से कोई सूत्र बन कर
वह कानों तक आता है हमारे,
हम कंधे उचका कर कह देते हैं, अभी जल्दी क्या है
सोचेंगे आपकी बात पर फिर कभी
वह दस्तक देता है अनेकों बार
कभी सुख कभी दुःख की थपकी लगाकर
हमने उसकी ओर न देखने की कसम खाली हो जैसे
नजरें चुराते निकल जाते हैं....
प्रीति भोज में पेट भर जाने पर वह टोकता है भीतर से
अनसुना कर उसे नई प्लेट में
बस एक मिठाई और परोस लेते हैं हम
परमात्मा भी थकता नहीं
वह बुलाए ही जायेगा...
हम भी कुछ कम नहीं...
पर जीत तो उसकी ही होगी
आखिर वह हमारा बाप है...

गुरुवार, जनवरी 19

जो घर खाली दिख जाता है


जो घर खाली दिख जाता है


एक-एक कर चुन डाले हैं
पथ के सारे पत्थर उसने,
कंटक चुन-चुन फूल उगाये
हरियाली दी पथ पर उसने !

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है
पर भीतर यह राज छिपा है,
वह खुद ही आने वाला है
उसी हेतु यह जतन किया है !

जिस दिल को चुनता घर अपना
उसे सँवारे  सदा प्रेम से,
जो घर खाली दिख जाता है
डेरा डाले वहीं प्रेम से !

उसकी है हर रीत निराली
बड़ा अनोखा वह प्रियतम है,
एक नयन में देता आँसू
दूजे में भरता शबनम है !

वह जो है बस वह ही जाने
हम तो दूर खड़े तकते हैं,
वही पुलक भरता अंगों में
होकर भी हम कब होते हैं ! 

मंगलवार, जनवरी 17

बीज से फूल तक


बीज से फूल तक


कृषि भवन के विशाल कक्ष में
शीशे के जार में बंद एक नन्हा सा बीज
था व्याकुल बाहर आने को
नयी यात्रा पर जाने को....
खरीदने की मंशा लेकर तभी आया एक किसान
तैयार थी माटी, रोपा गया वह बीज उसी शाम
तृप्त हुआ था बीज
 पाकर सिंचन
और ऊष्मा धरा की
उठने को आतुर था
गगन और पवन के सान्निध्य में
मर मिटने को था वह तैयार
मिलाने पंच भूतों की काया पंच भूतों से
पर नहीं था तैयार उसका खोल
जो आज तक था रक्षक
बना था बाधक
कांप उठा वह
क्या इस बार भी
भीतर ही भीतर सूख जायेगा
नन्हा सा अंकुर
नहीं... पुनः नहीं
जाना ही होगा इस खोल को
ताकि एक दिन फूल बनने की
 सम्भावना को तलाश सके बीज
एक नयी पीढ़ी को सौंप जाये अपनी विरासत
पूरी शक्ति से भेद डाला आवरण
आ ऊपर धरा के ली दीर्घ श्वास
अभी लंबी यात्रा तय करनी है
कितने मौसमों की मार सहनी है
कितनी हवाओं से सरगोशियाँ
तितली, भंवरों से
गुफ्तगू करनी है
वह उत्सुक है जीवन को एक बार फिर जीने के लिए
उत्सुक है हवा, जल और ऊष्मा को पीने के लिये   
 फूल बन कर अस्तित्त्व के चरणों में समर्पित होने के लिए
कैसा होगा वह पल जब
अपना सौंदर्य और सुरभि सौंप
बच जायेगा यह बीज उन हजार बीजों में
अस्तित्त्व भी प्रतीक्षा रत है
बनने साक्षी उस घड़ी का...    

सोमवार, जनवरी 16

अम्मा के लिये

आठ महीने कोमा में रहने के बाद हमारे परिचित परिवार की बुजुर्ग महिला ने देह त्याग दी, दो बच्चों की शादी उसी दौरान हुई, जो पहले से तय  थी. विवाह के कुछ ही दिनों बाद यह घटना घटी.
अम्मा के लिये 

अम्मा ! तुम चली गयीं
उस लोक में चली गयीं
जहाँ हम सब को जाना है एक दिन
जाते-जाते भी निभा गयीं अपना कर्त्तव्य
जैसे निभाती रहीं पूरे जीवन...
चुपचाप करतीं रहीं प्रतीक्षा सही समय की
जब पूर्ण हो गए मंगल कार्य
तुम्हारे प्रिय वंशज बंध गए विवाह सूत्र में
तब चुना तुमने प्रस्थान का दिन...
इतना स्नेह जीवन भर लुटाया तुमने
और जाते-जाते भी उलीच गयीं
अपने अंतर की सारी ऊष्मा
नई पीढ़ी के नाम...

अम्मा, तुम्हारा होना घर की छत के समान ही तो था
एक छायादार वृक्ष की तरह भी
स्नेह और ममता का साया ही तो थीं तुम
जो बांधें रहीं सारे परिवार को एक सूत्र में
बहुत जीवट भरा था तुममें...
माँ और पिता दोनों की भूमिका निभातीं
घंटों पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बंटाती
परिश्रम और धैर्य की मूर्ति बनी
काम करते हुए तुम्हारी छवि
भुलाई नहीं जा सकती...

ऊँचा कद, चौड़ा भाल
लाल बिंदी, श्वेत मोतियों की माल
दायें हाथ में एक अंगूठी, कांच की चूडियाँ
नासिका में कील और चेहरे पर झलकता आत्मविश्वास...
मन मोहने वाली थी तुम्हारी मुस्कान भी
लंबी बाँहों वाला ब्लाउज और सीधे पल्ले की साड़ी
तुम्हें याद करते हुए सब याद आते हैं...

पूजा के लिये सुबह सवेरे उठ कर फूल लाना
ढलती उम्र में भी कहाँ छोड़ पायीं थीं तुम
रामायण का पाठ सुनते हुए ही बीते
तुम्हारे अंतिम दिन भी...
कितनी भाग्यशालिनी थीं तुम..

अम्मा, तुम चलीं गयीं पर छोड़ गयी हो
एक विरासत...परिवार में एकता की
बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा और सम्मान की
उन्नत संस्कार की
सेवा और सहयोग की भावना की
तुम्हारा भौतिक रूप भले न हो
पर तुम सदा रहोगी इस घर के हर कोने में
हर उस मन में जिनसे तुम मिली जीवन में
अम्मा तुम चली गयीं
पर सिखा गयीं कितना  कुछ
तुम्हें अर्पित हैं ये श्रद्धा सुमन ! 

शुक्रवार, जनवरी 13

लड़कियों की प्रार्थना


लड़कियों की प्रार्थना


अच्छा घर हो अच्छा वर हो
बड़ी नौकरी न कोई डर हो,
इतना तो सब माँगा करतीं
‘स्वयं’ कैसी हों नहीं सोचतीं !

बाहर सब हो कितना अच्छा
भीतर के बल पर ही टिकता,
भीतर को यदि नहीं संवारा
बाहर का भी शीघ्र बिखरता !

जो होना है वह हो जाये
सहज हुआ मन दीप जलाये,
फेरे, वेदी, मंगल वाणी
जीवन को आगे ले जाये !

लम्बा रस्ता, दूर है मंजिल
अपनी राह स्वयं गढनी है,
कैसा मधुर खेल चलता है
एक पहेली हल करनी है !

गुरुवार, जनवरी 12

गीत समर्पण का गाते हैं


गीत समर्पण का गाते हैं

पुलक भरे जब अपने उर में
साँझ ढले झर जाते हैं,
सँग हवा के इक झोंके पर
झूम झूम इठलाते हैं !

मनहर, कोमल, पुष्प धरा पर
गीत समर्पण का गाते हैं !

लय और गति के सँग बंधे
निज कक्षा में रह सिमटे,
जाने किस अनादि काल से
मंद मंद मुस्काते हैं !

चाँद सितारे ऊपर नभ में
गीत समर्पण का गाते हैं ! 

बुधवार, जनवरी 11

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं


आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं

माँ को सम्मुख जब न पाए
शिशु का कोमल उर घबराए,
उसके नन्हें से कपोल पर
बूंदों की सुछवि गढ़ते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

प्रिय से दूरी सह न पाए
व्यथा नहीं भीतर रह पाए ,
जार-जार बहे थे आँसू
कॉपी के पन्ने कहते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

आँसू जब परिपक्व हो गए
अपना खारापन खो गए,
विरह भाव में पगे हुए से
शीतलता भीतर भरते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

कभी बहे थे जो रोष में
दुःख, विषाद या किसी शोक में,
वही आज पर दुःख कातर हो
समानुभूति में बढ़ते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !


मंगलवार, जनवरी 10

देखते ही देखते



देखते ही देखते


देखते ही देखते उम्र सारी ढल गयी
जिंदगी की डोर यूँ हाथ से फिसल गयी

कुछ कहाँ हो सका आह बस निकल गयी
क्रांति की हर योजना बार-बार टल गयी

हर किसी मोड़ पर कमी कोई खल गयी
दर्द आग बन उठा श्वास हर पिघल गयी

जो दिखा छली बली चाल जिसकी चल गयी
भ्रमित हो गया जगत दाल उसकी गल गयी

मर के भी वह न मरा मौत भी विफल गयी
रूह जिन्दा रहे यह बात सच निकल गयी  

सोमवार, जनवरी 9

ये नजरें कहीं और टिकती नहीं


ये नजरें कहीं और टिकती नहीं  



तू नूर है हम नूर को चाहने वाले
अब अंधेरों से अपनी तो निभती नहीं

कहाँ छिपा सका तू खुद को पर्दे में
तुझसे तेरी खुदाई यह छिपती नहीं

बन के आँसू तू ही तो नहीं छलका
ऐसी ठंडक तो पहले मिली ही नहीं

माँ के हाथों सा छूके यह झोंका गया
तेरी धुन जैसी लोरी सुनी न कहीं

तेरी चाहत का ऐसा सरूर छा गया
इन कदमों की थिरकन थमती नहीं  

तेरे दर पे जो आया वहीं रह गया
ये नजरें कहीं और टिकती नहीं  

शनिवार, जनवरी 7

विवाह की सालगिरह पर


तुम्हारे लिये


तन हैं चाहे दूर आज पर
मन अपने हैं घुले-मिले,
अंतर में इक तार जुड़ी है
तभी तो हम हैं खिले-खिले !

वर्षों पहले तुमने ही तो
लगन लगाई थी भीतर,
जीवन पथ पर सँग चले हम
तय होकर आया था ऊपर !

तुमने ही तो रंग भरे हैं
स्वप्न सजे मेरी आँखों में,
ले पाए लंबी उड़ान हम
जोश भरा मेरी पांखों में !

जो भी दिया प्रेम ही माना
झुंझलाहट भी थी उपहार,
प्रिय का हो, सब कुछ भाता है
गुस्सा हो या खालिस प्यार !

प्रेम खुदाई, प्रेम ही पूजा
यही दुआ, सब अनुभव कर लें,
अर्थ यही है इस बंधन का
इसी भाव को संभव कर लें !

एक नया जीवन जब धारा
नया उजाला घर में छाया,
मिले उसे भी कोई अपना
स्वप्न यही अब दिल में समाया !



शुक्रवार, जनवरी 6

जागा कोई, कौन सो गया



जागा कोई, कौन सो गया

ढूँढ रहा जो तृप्ति जग में
प्यास और भी तीव्र बढ़े, 
सूना-सूना सा जीवन वन
जब तक न उससे नयन  लड़े !

जब तक कुछ भीतर न पाया
बाहर का सब कुछ फीका है,
मौन उतर जाता जब भीतर
जग भी तब लगता नीका है !

वाणी खो गयी मौन प्रकटता
शब्द निशब्द में ले जाते हैं,
जग भी यह सीढ़ी बन जाता
उस असीम तक हम जाते हैं !

जो कहना था कह न पाया
कह-कह कर मन मौन हो गया
भीतर गूंजी धुन वंशी की
जागा कोई, कौन सो गया !

भीतर बाहर जो मौन है
वह मन लीन हुआ है धुन में,
डूब गया जो उस अनंत में
जागा है बस उस गुन-गुन में !  

बुधवार, जनवरी 4

सुरभि अनोखी

सुरभि अनोखी

गूंजती हैं जब वेद ऋचाएँ कहीं
या हवा के कंधों पर उड़कर
आती हैं अजान की आवाजें..
ले आती हैं सुगन्धि उसकी...

आत्मा के नासापुट ढूँढते रहे हैं
जिस सुरभि को जन्मों–जन्मों से
माटी की देह का नहीं कुछ मोल जिसके बिना
माटी में मिल हो जाये माटी
इससे पूर्व सुरभि भरे भीतर
जो व्याप्त है कण-कण में
पर मन का धुँआ इतना घना है
कि वह गंध खो जाती है
नहीं पहुंचती आत्मा तक...

सोमवार, जनवरी 2

ऐसे ही वह हमें सहेजे



ऐसे ही वह हमें सहेजे

पीछे-पीछे आता है वह
परम सनेहे हर पल भेजे,
मोती जैसे जड़ा स्वर्ण में
ऐसे ही वह हमें सहेजे !

घेरे हुए है चहूँ ओर से
माँ के हाथों के घेरे सा,
गुंजन मधुर सुनाता हर पल
मंडराए ज्यों मुग्ध भ्रमर सा !

गहन शांति व मौन अनूठा
भर जाता भीतर जब आये,
जन्मों की साध हो पूरी
ऐसा कुछ संदेश दे जाये !

ज्योति का आवरण ओढ़ाता
एक तपिश अनोखी प्रीत,
सब कुछ जैसे बदल गया हो
बदला हो प्रांगण व भीत !

भान समय का भी खो जाता
नहीं कोई वह रहे अकेला,
अपनी मस्ती में बस खोया
एक हुए नीरव या मेला !   

रविवार, जनवरी 1

कब होगा जागरण



कब होगा जागरण

बूढी परी ने शाप दिया था उस दिन
सो गया सारा देश
राजभवन के चारों ओर उग आये बड़े बड़े जंगल
थम गया था जीवन
गुम हो गए लोग गहरी नींद में
लेकिन स्वप्न चलते रहे थे भीतर
स्वप्न में वे विचरते थे भीतर
खुले मैदानों में...
खाते-पीते थे... जगने की फ़िक्र ही नहीं की उन्होंने...
स्वप्न में ही जी ली थी पूरी सदी
और फिर... आया था राजकुमार
सोयी राजकुमारी को जगाने
लेकिन गहरी निद्रा का मोह घना था
स्वप्न में ही चल रहा है खेल
और मुस्का रहा है राजकुमार
नींद में ही गढ़ ली है उन्होंने उसकी मूर्ति
और पूजा कर रहे है...
अचरज में पड़ा वह ढूँढने निकल पड़ा है
बूढी परी को...