मंगलवार, मार्च 4

आना वसंत का

आना वसंत का

जब नहीं रह जाती शेष कोई आशा
 निराशा के भी पंख कट जाते हैं तत्क्ष्ण !
जब नहीं रह जाती ‘मैं’ की धूमिल सी छाया भी
उसकी झलक मिलने लगती है उसी क्षण
निर्भर, निर्मल वितान सा जब फ़ैल जाता है
मन का कैनवास
 प्रेम के रंग बिखेर जाता है कोई अदृश्य हाथ
माँ की तरह साया बन कर चेताती चलती है
छंद मयी हो जाती है कायनात !
छूट जाते हैं जब सारे आधार
तब ही भीतर कोई कली खिलती है
बज उठते हैं मृदंग और साज
जुड़ जाते हैं जाने किससे अंतर के तार !
जब पक जाता है ध्यान का फल भी
झर जाता है जन्मों का पतझड़
और उतर आता है चिर वसंत जीवन में !



7 टिप्‍पणियां:

  1. अहम अहंकार मैं और मेरा का ज़रूरी है :


    जब नहीं रह जाती शेष कोई आशा
    निराशा के भी पंख कट जाते हैं तत्क्ष्ण !
    जब नहीं रह जाती ‘मैं’ की धूमिल सी छाया भी
    उसकी झलक मिलने लगती है उसी क्षण
    निर्भर, निर्मल वितान सा जब फ़ैल जाता है
    मन का कैनवास

    (तत्क्षण )सुन्दर मनोहर रचना।

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  2. प्रेम के रंग बिखेर जाता है कोई अदृश्य हाथ
    माँ की तरह साया बन कर चेताती चलती है
    छंद मयी हो जाती है कायनात !
    छूट जाते हैं जब सारे आधार
    तब ही भीतर कोई कली खिलती है
    बज उठते हैं मृदंग और साज
    अप्रतिम बिम्ब विधान

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  3. स्वागत व आभार, वीरू भाई !

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  4. उसी चिर बसंत की प्रतीक्षा है..

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