गुरुवार, दिसंबर 15

निज पैरों का लेकर सम्बल


निज पैरों का लेकर सम्बल


कितनी बार झुकें आखिर हम 
कितनी बार पढ़ें ये आखर,
जीवन सारा यूँ ही बीता 
रहे साधते वीणा के स्वर !

श्वास काँपती मन डोलता 
हौले-हौले सुधियाँ आतीं,
कितनी बार कदम लौटे थे 
रह-रह वे यादें धड़कातीं !

निज पैरों का लेकर सम्बल
इक न इक दिन चढ़ना होगा,
छोड़ आश्रय जग के मोहक 
सूने पथ पर बढ़ना होगा !

कितने जन्म सोचते बीते 
जल को मथते रहे बावरे,
कब तक स्वप्न देख समझाएँ 
कब तक राह तकें सांवरे ! 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें