मंगलवार, मई 22

एक लघु कहानी



काश !

आज फिर मीता मुँह फुलाए बैठी थी. भाभी ने उसे स्कूल न जाने पर डाँटा था. आजकल उसे स्कूल जाने से ज्यादा सुंदर वस्त्र पहन कर शीशे में स्वयं को निहारना अच्छा लगने लगा था. उसने भाभी को भाई से कहते सुना था, मीता अब बड़ी हो रही है उसे इधर-उधर यूँही नहीं घूमना चाहिए. तब से भाभी की हर बात उसे बुरी लगने लगी थी. पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता तो वह क्या करे. माँ की आँखों की रौशनी कम होने लगी थी, उनकी एक आँख तो पहले से ही खराब थी अब दूसरी से भी कम दिखाई देता था. पिता अधिकतर समय के बाहर ही बिताते थे, वह एक छोटे से व्यापारी थे. घर की सारी जिम्मेदारी भाभी की थी. उनकी गोद में एक नन्हा सा पुत्र भी था पर वह सास-ससुर, दोनों देवरों और ननद की देखभाल भी ठीक से कर रही थी. यह उन दिनों की बात है जब भारत देश नया-नया आजाद हुआ था.

छमाही परीक्षा में जब वह पास नहीं हुई तो भाई ने उसे बुलाकर पूछा. मीता ने स्पष्ट कह दिया, अब वह आगे नहीं पढ़ेगी. चाहें तो उसका ब्याह करवा दें. अभी वह पन्द्रह वर्ष की भी नहीं हुई थी, आठवीं में ही पढ़ रही थी. भाई ने दफ्तर के एक सहकर्मी से बात की तो उसने कहा, मेरा भाई अभी-अभी नौकरी से लगा है, हम भी उसके लिए लड़की देख रहे हैं. बात पक्की हो गयी और विवाह हो गया. मीता के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे. पर पति का काम ऐसा था जिसमें उसे टूर पर जाना पड़ता था. एक महीना साथ रहकर वह बाहर चला गया, मीता की तबियत खराब रहने लगी. पहले-पहल उसे कुछ समझ में नहीं आया पर बाद में पता चला वह गर्भवती थी. वर्ष पूरा होने से पहले ही एक कमजोर और सांवली सी बालिका को उसने जन्म दिया. वह स्वयं गोरी-चिट्टी थी, पहले तो बच्चे की उसने चाहना ही नहीं की थी, उसे तो सज-धज कर घूमना था, अब इस सांवली बच्ची को देखकर उसे लगा, शायद अस्पताल में किसी अन्य के साथ यह बदल गयी है. अपनी उपेक्षा से दुखी होकर दिन भर रोती रहने  वाली उस बच्ची की देखभाल वह ठीक से नहीं कर पाती थी. समय बीतता रहा, एक पुत्र और हुआ, फिर पांच वर्षों के बाद दूसरा पुत्र, जो बचपन से ही किसी न किसी रोग का शिकार होता रहा. इसके बाद भाभी ने ही अस्पताल ले जाकर मीता का ऑपरेशन करवा दिया. अपना बचपन छिन जाने का दुःख था या कौन सा क्रोध था, वह अपना गुस्सा बच्चों पर निकालने लगी. उन्हें रगड़-रगड़ कर नहलाती जब तक कि उनका तन लाल न हो जाता. साबुन लगाने से कहीं त्वचा का रंग बदलता है पर इन्सान के मन को कौन समझ पाया है. बच्चे पढ़ाई में भी कमजोर ही रहे, माँ यदि स्वयं पढ़ी-लिखी या समझदार न हो तो बच्चों की सहायता नहीं कर सकती. हाईस्कूल में बेटी असफल रही तो उसे घर बैठा दिया, और प्राइवेट परीक्षा देने को कहा. डिग्री तक आगे की सभी पढ़ाई उसने घर से ही की.  उसी समय से उसके लिए लड़का भी देखा जाने लगा. पुत्र भी कालेज में आ गया था तभी एक जगह बात पक्की हो गयी और बिटिया को विदा कर दिया. ससुराल में बेटी बहुत खुश थी, उसके भी तीन बच्चे हुए पर पचास की होने से पहले ही वह स्वर्ग सिधार गयी. उसे अपने पिता और भाई के देहांत का दुःख सता रहा था जो दस वर्ष का बेटा और पत्नी को छोड़कर अचानक ही स्वर्ग सिधार गया था. मीता पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, पुत्र की मौत का गम न सह पाने के कारण ही शायद पतिदेव ने भी वही राह पकड़ ली थी. अभी उसके पति की मृत्यु हुए ज्यादा समय नहीं गुजरा था, कि पहले बेटी की असाध्य बीमारी और फिर मृत्यु का समाचार उसे मिला. उसे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि इतना दुःख पाने के बाद भी वह सही-सलामत है. बड़ी बहू, पोता, छोटा पुत्र और उसका परिवार साथ में था. वे सभी उसकी देखभाल करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते थे. उसका मन अब संसार से ऊबने लगा था और ज्यादा समय वह सत्संग में बिताने लगी थी. सुबह हो या शाम जब भी समय मिलता वह आस-पास होने वाले किसी न किसी कथा सम्मेलन में पहुंच जाती. इसी तरह एक दिन जीवन की शाम आ गयी थी. अस्वस्थता ने उसे अस्पताल पहुंचा दिया था. सफेद दीवारों वाले सूने कमरे में अकेले बिस्तर पर लेटे हुए उसे अपना बचपन याद आ रहा था. काश ! वह पढ़ाई के महत्व को समझती होती तो उसका जीवन कुछ और ही होता. उसके बच्चे भी शायद इसी कारण उच्च अध्ययन नहीं कर पाए. परिवारजनों को याद करते हुए और उन्हें मंगल कामनाएं देते हुए उसने आखें मूँद लीं.

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