शुक्रवार, मार्च 7

इतना ही तो कृत्य शेष है

इतना ही तो कृत्य शेष है


‘मैं’ बनकर जो मुझमें बसता 

‘तू’ बनकर तुझमें वह सजता, 

मेघा बन नभ में रहता जो, 

धारा बन नदिया में बहता !


चुन शब्दों को गीत बनाना 

अपनी धुन में उसे बिठाना, 

इतना ही तो कृत्य शेष है 

सुनना तुमको और सुनाना !


अब न कोई सीमा रोके 

नील गगन में किया ठिकाना, 

खुला द्वार, है खुला झरोखा 

सहज हो रहा आना जाना !


7 टिप्‍पणियां:

  1. कितना सार्थक और सुखद संवाद है । बहुत सुंदर नील गगन छाँव तले हम रोज बैठे और ये संवाद हमे गहन परमात्मिक सुखानुभूति से जोड़ दे ।

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    1. वाह ! सुंदर प्रतिक्रिया!! स्वागत व आभार !

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  2. बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !

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