भीतर कोई राह देखता
ऊपर वाला खुला राज है
फिर भी राज न खुलने वाला,
देखा ! कैसा चमत्कार है
या फिर कोई गड़बड़ झाला !
कण-कण में वह व्याप रहा है
छिपा हुआ सा फिर भी लगता,
श्वास-श्वास में वास उसी का
दर्शन हित मीलों मनु चलता !
ढूँढ रहा जो गर थम जाये
जाये ठहर चाहने वाला,
भीतर कोई राह देखता
जग जाता गर सोने वाला !
देख लिया ? नहीं, देख रहा है !
इस पल के बाहर न मिलता,
पल-पल सृष्टि नवल हो रही
नित्य ही सब कुछ रचा जा रहा !
राज अनोखा जाना जिसने
वही ठगा सा खड़ा रह गया,
ख़ुद को देखे या अनंत को
भेद न कोई बड़ा रह गया !
अन्तर्मन की गहन सुलझी सी भी अनबूझी भी बड़ा हीं विचित्र मेल है । इन दोनों का । एक पल में सूत्र हाथ आता है तो दूसरों हीं पल में किहीं और ही निकल भागता है और हम बस चकित ..
जवाब देंहटाएंकविता को इतनी गहराई से समझकर सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रियंका जी !
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 24 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएंराज अनोखा जाना जिसने
जवाब देंहटाएंवही ठगा सा खड़ा रह गया,
ख़ुद को देखे या अनंत को
भेद न कोई बड़ा रह गया ! - बहुत सुंदर पंक्तियाँ! आप हमेशा ही विचारों को हार में सुंदर ढंग से पिरो पाती हैं! इस लिए आपकी रचनाएँ अच्छी लगती हैं!
स्वागत व आभार आपका, आप जैसे पाठक ही रचना को उसकी मंज़िल तक पहुँचा देते हैं
हटाएंभीतर कोई देख रहा... नहीं दिख रहा फिर भी दिख रहा है... अद्भुत चमत्कारी अनुभव... गहरा भाव सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रितु जी !
हटाएंये तो गूँगे का गुड़ वाली बात हो गई अनिता दी, लेकिन
जवाब देंहटाएंऐसी कविता अलौकिक का कुछ अनुभव करने से ही प्रस्फुटित होती है. व्यक्त करने का भरसक प्रयत्न फिर भी पूर्ण संतुष्टि नहीं मिल पाती.
ऊपर वाला खुला राज है
फिर भी राज न खुलने वाला,
देखा ! कैसा चमत्कार है
या फिर कोई गड़बड़ झाला !