मंगलवार, मार्च 18

भेद न उसका जाना जाता

भेद न उसका जाना जाता
लगता है ख़ुद नाच रहे हैं 
पर सब यहाँ नचाये जाते, 
भ्रम ही है  सब बोल रहे हैं 
कोई बुलवाता भीतर से !
 
शब्द निकलते अनचाहे ही
अनजाने ही भाव उमड़ते, 
 कोई और जगाने वाला
कर्म यहाँ करवाये जाते !

जब तक कोई हो न बाँसुरी 
तब तक काटा-छीला जाता, 
 जब तक शून्य नहीं हो जाता 
तब तक मनस तराशा जाता !

कर्म कहें या दैव उसे हम 
उसके हाथों की कठपुतली, 
कुछ भी नहीं नियंत्रण में है 
  चालबाज़ियाँ सभी व्यर्थ ही !

 पल में हुआ धूल धुसरित वह 
अभी गगन पर जिसे बिठाया, 
ज्ञानी-ध्यानी माना मन को
अज्ञानी सा कभी दिखाया !
 
मेधा कितना ज़ोर लगाये 
भेद न उसका जाना जाता, 
‘मैं’ को तजे बिना जीवन में 
सच का सान्निध्य नहीं  मिलता !


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