लगता है ख़ुद नाच रहे हैं
पर सब यहाँ नचाये जाते,
भ्रम ही है सब बोल रहे हैं
कोई बुलवाता भीतर से !
पर सब यहाँ नचाये जाते,
भ्रम ही है सब बोल रहे हैं
कोई बुलवाता भीतर से !
शब्द निकलते अनचाहे ही
अनजाने ही भाव उमड़ते,
कोई और जगाने वाला
कर्म यहाँ करवाये जाते !
अनजाने ही भाव उमड़ते,
कोई और जगाने वाला
कर्म यहाँ करवाये जाते !
जब तक कोई हो न बाँसुरी
तब तक काटा-छीला जाता,
जब तक शून्य नहीं हो जाता
तब तक मनस तराशा जाता !
तब तक काटा-छीला जाता,
जब तक शून्य नहीं हो जाता
तब तक मनस तराशा जाता !
कर्म कहें या दैव उसे हम
उसके हाथों की कठपुतली,
कुछ भी नहीं नियंत्रण में है
चालबाज़ियाँ सभी व्यर्थ ही !
उसके हाथों की कठपुतली,
कुछ भी नहीं नियंत्रण में है
चालबाज़ियाँ सभी व्यर्थ ही !
पल में हुआ धूल धुसरित वह
अभी गगन पर जिसे बिठाया,
ज्ञानी-ध्यानी माना मन को
अज्ञानी सा कभी दिखाया !
अभी गगन पर जिसे बिठाया,
ज्ञानी-ध्यानी माना मन को
अज्ञानी सा कभी दिखाया !
मेधा कितना ज़ोर लगाये
भेद न उसका जाना जाता,
‘मैं’ को तजे बिना जीवन में
सच का सान्निध्य नहीं मिलता !
भेद न उसका जाना जाता,
‘मैं’ को तजे बिना जीवन में
सच का सान्निध्य नहीं मिलता !
सुंदर अभिव्यक्ति आत्मरुप को पाने की !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रियंका जी !
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंकितना गहरा सच, कितने सरल शब्दों में!
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