शनिवार, मार्च 21

जब राज खुलेगा इक दिन यह

जब राज खुलेगा इक दिन यह 


जो द्रष्टा है वह दृश्य बना 
स्वप्नों में भेद यही खुलता,
अंतर बंट जाय टुकड़ों में 
फिर अनगिन रूप गढ़ा करता !

सुख स्वप्न रचे, हो आनन्दित 
दुःख में खुद नर्क बना डाले,
कभी मुक्त मगन उड़ा नभ में 
कभी गह्वर, खाई व नाले !

जो डरता है, खुद को माना
जो डरा रहे, हैं दूजे वे, 
खुद ही है कौरव बना हुआ 
बाने बुन डाले पांडव के !

जब राज खुलेगा इक दिन यह 
मन विस्मित हो कुछ ढगा हुआ, 
स्वप्नों से जगकर देखेगा
मैं ही था सब कुछ बना हुआ !

मैं ही हूँ, दूजा यहाँ नहीं 
यह मेरे मन की माया थी, 
वे दुःस्वप्न सभी ये सुसपने 
केवल अंतर की छाया थी !


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