शुक्रवार, मार्च 6

चाह-अचाह


चाह-अचाह

हर चाह रिझाती है पहले 
फिर वही भगाती है 
मन-सागर में लहरों की 
एक पंक्ति जगाती है 
मन के सूने पनघट पर ही 
उसके आने की सम्भावना है 
भीड़ में मिलन असंभव है 
जब तक अटका है एक तार भी चाहत का 
उसकी बांसुरी की धुन अनसुनी रह जाती है 
जो बज रही है अहर्निश 
उसकी याद में बहाया हर अश्रु 
पोंछ डालता है मन के रस्तों पर 
पड़ी धूल के कणों को 
जो हर चाह लिए आती है अपने संग 
अनन्त प्रतीक्षा करने का साहस है जिसमें 
भीतर लौट गयी मन की उस धारा(राधा)को ही 
कृष्ण मिला करते हैं 
कान जब कुछ और सुनना न चाहें 
पलकें मुंद जाएँ निहार  अपना ही रूप 
रिक्त हुआ ठहर जाये 
ऐसे ही किसी क्षण में 
उसकी झलक आये ! 

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