सोमवार, जुलाई 19

लुटाता सुवास रंग

लुटाता सुवास रंग 

तृप्ति की शाल ओढ़े 
खिलता है हरसिंगार, 
पाया जो जीवन से 
बाँट देता निर्विकार !

कंपित ना हुआ गात 
घाम, मेह, शीत आए, 
तपा, भीगा, झूमता 
फूलों में मुस्कुराए !

जीवित है काफ़ी है 
नहीं कोई माँग और, 
लुटाता सुवास रंग 
रात खिलता झरे भोर !

एक उसी जगह खड़ा 
राही थम जाते सभी, 
देखते निगाहें भर 
सुवास मधुर जाएँ पी !

जीवन भी ऐसा ही 
है भीतर समान सदा,
देता रहे अनगिनत 
अहर्निश वरदान प्रदा !


17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर ,ऐसा लग रहा हरसिंगार की सुगंध मन में बस गयी।

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    1. आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से कविता ने अपना लक्ष्य पा लिया, स्वागत व आभार !

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  2. जिह्वा पर अमृत बूंद सा ... अहा!

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    1. शुभकामनायें अमृता जी, आपका काव्य के आस्वादन का अंदाज ही अनोखा है !

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  3. जीवन भी ऐसा ही
    है भीतर समान सदा,
    देता रहे अनगिनत
    अहर्निश वरदान प्रदा.. बहुत सुंदर!

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  4. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-7-21) को "प्राकृतिक सुषमा"(चर्चा अंक- 4131) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  5. जीवन भी ऐसा ही
    है भीतर समान सदा,
    देता रहे अनगिनत
    अहर्निश वरदान प्रदा !

    वाह क्या सार लिखा आपने
    अति मधुरमं।
    जी प्रणाम
    सादर।

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  6. बहुत सुंदर!
    हरसिंगार ने कविता का किया श्रृंगार।
    अभिनव।

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  7. तृप्ति की शाल ओढ़े
    खिलता है हरसिंगार,
    पाया जो जीवन से
    बाँट देता निर्विकार..बहुत ही सुंदर सृजन।
    सादर

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