स्वप्न में मन बुने कारा
एक का ही है पसारा
गुनगुनाता जगत सारा,
निज-पराया, अशुभ-शुभता,
स्वप्न में मन बुने कारा !
मित्र बनकर स्नेह करता
शत्रु बन खुद को डराता,
जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?
सकल पल में हवा होता !
जगत भी यह रोज़ मिटता
आज, कल में जा समाता,
अटल भावी में यही कल
देखते ही जा सिमटता !
नींद में किस लोक में था
भान मन को कहाँ होता,
जाग भीतर कौन जाने
खबर स्वप्नों की लगाता !
अचल कोई कड़ी भी है
जो पिरोती है समय को,
जिस पटल पर ख़्वाब दिखते
सदा देती जो अभय को !
क्या वही अपना सुहृद जो
रात-दिन है संग अपने,
जागता हो हृदय या फिर
रात बुनता मर्त्य सपने !
जागते हुए ही तो सारे समय कुछ न कुछ ताना बाना बुनता रहता है । मंथन योग्य रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संगीता जी
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत आभार !
हटाएंवाह सत्य की खोज में ,बहुत प्रभावशाली रचना !!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनुपमा जी !
हटाएंजीने के सच को उजागर करती
जवाब देंहटाएंप्रभावी रचना
स्वागत व आभार ज्योति जी !
हटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंलाज़वाब पंक्तियाँ...
जवाब देंहटाएंखूबसूरत सृजन!
जवाब देंहटाएं