शनिवार, अक्तूबर 5

तावांग - उत्तरपूर्व का एक नायाब रत्न

तावांग - उत्तरपूर्व का एक नायाब रत्न 


बोमडिला - होटल शियांग फ़ाँग 


ग्रीष्मावकाश आरंभ होते ही मन पखेरू सैर पर निकल पड़ने को आतुर हो उठता है। यायावर प्रवृत्तियाँ अँगड़ाइयाँ लेने लगती हैं। पुत्र की वार्षिक परीक्षाएँ समाप्त होते ही हमने अरुणाचल प्रदेश स्थित एक सुंदर पहाड़ी स्थान तावांग जाने का कार्यक्रम बना लिया था।इस समय शाम के साढ़े छह बजे हैं, अभी रात्रि के भोजन में समय है, इसलिए अपनी रुचि के अनुसार मैंने अब तक की यात्रा का विवरण संजोने के लिए कलम उठा ली है।कल दोपहर बारह बजे हम असम की  तिनसुकिया ज़िले में स्थित तेल नगरी दुलियाजान से एक मित्र परिवार के साथ रवाना हुए थे। शाम को शिकोनी के गेस्ट हाउस में रुके। वहाँ भोजन की सुविधा नहीं थी, इसलिए निकट स्थित एक बाज़ार में गये, जो रोशनियों से जगमगा रहा था, तेज स्वर में फ़िल्मी गाने बज रहे थे, आने-जाने वाली बसों के यात्रियों को आकृष्ट करने के लिए यह  आयोजन किया जाता है। वहाँ से आर्ट ऑफ़ लिविंग की सदस्या एक वृद्ध महिला विमलाजी को फ़ोन किया। 


अगले दिन सुबह साढ़े आठ बजे हम  तेज़पुर में विमलाजी के घर पहुँच गये। वे बहुत प्यार से मिलीं, अपना शानदार घर दिखाया, नमकीन फ़ैक्ट्री में ले गयीं। अच्छा सा नाश्ता कराया। दोपहर बाद हम बोमडिला पहुँच गये थे।यहाँ तक का रास्ता बहुत अच्छा था, चढ़ाई शुरू हो गई थी और जगह-जगह झरनों के सुंदर दृश्य निहारने के लिए विश्राम लेना पड़ता था। तीपी नदी हमारे साथ-साथ बह रही थी, पहाड़ी नदी में गति होती है, शोर होता है और वह बलखाती हुई सफ़ेद जल को पत्थरों से टकराती दौड़ती हुई सी लगती है। उसका जल शीशे सा स्वच्छ था, और उसमें पेडों के प्रतिबिंब झाँक रहे थे। कभी वह अचानक दिखायी देना बंद हो जाती, शायद किसी गह्वर में समा जाती हो, कभी सड़क के समानांतर आ जाती थी।पहाड़ पेड़ों से घिरे थे, कहीं-कहीं वृक्ष काट लिए गये थे, पर प्रकृति का यह भव्य रूप देखकर लग रहा था मानो हम ईश्वर के निकट आ गये हों। ईश्वर तो हर पल हमारे साथ है, तभी अब तक की यात्रा निर्विघ्न पूरी हो गई है। यह होटल महँगा है, पर अच्छा है। होटल का मैनेजर नेपाली है, उसका व्यवहार देखकर लगता है, शांत है। मुस्कुराता तो बिलकुल नहीं, गंभीर है। तावांग जाने के लिए टाटा सूमो का प्रबंध उसी ने करवाया है। वापसी की यात्रा में हम टूरिस्ट लॉज में ठहरने वाले हैं, जो बहुत सस्ता है। शाम को घूमने निकले तो रविवार होने के कारण यहाँ का आर्ट और क्राफ्ट केंद्र बंद मिला, मोनेस्ट्री में भी कोई नहीं मिला, द्वार बंद था।छोटे से बाज़ार से गुड्डू(पुत्र) ने अपनी अध्यापिका के लिए भूटानी घंटी ख़रीदी। कल सुबह तावांग जाना है। पतिदेव सो रहे हैं। पुत्र अपने मित्र के साथ अपने कमरे में है। अब बच्चे बड़े हो गये हैं, उनको पहली बार अलग कमरे में रहने का मौक़ा अच्छा लग रहा होगा। मेरा मन शांत है, इस कमरे में इतनी शांति है कि मुझे अपने भीतर से आती हुई आवाज़ भी सुनायी दे रही है।


हमारी कल की यात्रा में कभी-कभी ऐसे क्षण आये जब हमारे सहयात्री घबरा गये, शायद हम भी एकाध क्षणों के लिए घबरा गये होंगे। पर यह डर जो मन में है, हमें जीने की प्रारण देता है, इसी को जिजीविषा कहते हैं। आज सुबह उठकर पहले कुछ दूर तक टहलने गये, फिर वापस आकर प्राणायाम का अभ्यास किया। मन जैसे ठहर गया। रोज़मर्रा के जीवन को छोड़कर हम यहाँ छुट्टियाँ बिताने आये हैं, सो निश्चिंत हैं। कहीं कोई ऊहापोह नहीं, यात्रा का प्रबंध अच्छी तरह से किया गया है।


टूरिस्ट लॉज तावांग


आज की हमारी यात्रा यादगार बन गई है। आलू के पराँठों का नाश्ता करके सुबह नौ बजे हम होटल से निकले। बोमडिला में कुछ विशेष देखने को नहीं मिला था, सो तावांग कैसा होगा, रास्ता कैसा होगा, मन में कई विचार चल रहे थे। रास्ता कई जगह काफ़ी खराब  था, भूस्खलन की वजह से सड़क पर जगह-जगह मरम्मत का काम चल रहा था। हमें देखकर अचरज होता था कि लड़कियाँ और औरतें सड़क बनाने के काम में लगी थीं। वे पत्थर कूट रही थीं। उनके लाल-लाल गाल और पीठ पर छोटा बच्चा, यह चित्र आँखों में बस गया है। लोग यहाँ मेहनती हैं और साथ ही स्वभाव से बहुत शांत। दुकानदार भी बहुत नम्र हैं। चाय वाला, होटल वाला और ड्राइवर सभी धीरे-धीरे बात करते हैं। ठंडी जगह पर रहने वाले ठंडे स्वभाव के हो ही जाते हैं शायद। यह टूरिस्ट लॉज भी अच्छा है, पूरे फ़र्श पर हरा कार्पेट बिछा है। कमरे में दो बेड नीचे हैं, एक ऊपर है, सीढ़ी से ऊपर जाना होता है।। यहाँ नेपाली लोग बहुत हैं, ड्राइवर भी नेपाली है। 


मार्ग में हमें लाल, पीले, सफ़ेद व गुलाबी बहुत सुंदर फूल दिखे जो प्रकृति ने स्वयं ही उगाये थे। वे ऑर्किड्स भी हो सकते हैं। चीड़ के पेड़, जिन पर काले व हरे कोन लगे थे, बहुत सुंदर लग रहे थे। पहाड़ों पर हरे रंग के अनगिनत शेड्स दिखायी पड़ रहे थे।धूप में रंग बदलते हुए लाल, पीले व नीले पहाड़ भी देखे।जैसे  प्रकृति अपनी पूरी सुंदरता बिखेर रही थी। पेड़ों के इतने विभिन्न आकार-प्रकार दिखे, जिन्हें सराहते ही मन ईश्वर को याद करने लगता है। पेड़ों की पत्तियाँ नुकीली थीं और वे नीचे की ओर झुकी थीं, जिससे बर्फ उनपर जमा ही न हो सके। याक, कुत्तों और घोड़ों के शरीर पर घने बाल थे। तेरह हज़ार फ़ीट से कुछ ऊँचा ‘सेला पास’ भी हमने देखा। थोड़ा पहले से ही जगह-जगह बर्फ के ढेर दिखने लगे थे, ‘पास’ के निकट तो बहुत बर्फ थी; और हमारे देखते ही देखते हिमपात होने लगा। छोटे-छोटे रूई के फाहों सी गिरती बर्फ कपड़ों व बालों को छू  रही थी। ठंड काफ़ी रही होगी, पर इतने सुंदर दृश्य को देखकर हम सभी बेहद उत्साहित थे। वहाँ दो झीलें भी थीं, जिनमें बर्फ से ढकी चट्टान का प्रतिबिंब झलक रहा था। वह दृश्य देखने लायक़ था। पहली बार हमने एक साथ इतनी बर्फ देखी थी। परसों वापसी में हम एक बार पुन: उसी मार्ग से गुजरेंगे। इस रास्ते में भी हमने छोटे-बड़े कई झरने देखे, नदी भी काफ़ी देर तक सड़क के साथ-साथ ही जा रही थी। एक जगह रुक कर हमने नदी का बर्फ सा ठंडा पानी छुआ ! साफ़, शीतल जल जो पहाड़ों की बर्फ से पिघल कर नीचे आ रहा था ! दो-तीन झरने तो जमे हुए भी मिले। नदी पहाड़, सीढ़ीनुमा खेत, लाल-लाल गाल वाले बच्चे व औरतें यह सारे दृश्य हमने कैमरे में क़ैद किए है और दिल के कैमरे में भी। 


मार्ग में पड़ने वाले एक स्थान ‘जसवंतसिंह गढ़’ में हम रुके, वहाँ सेना की तरफ़ से गर्मागर्म चाय का एक प्याला सबको दिया गया। वहाँ 1962 की भारत-चीन युद्ध की याद में एक स्मारक भी बना था। जो गढ़वाल राइफ़ल की 4 बटालियन के राइफ़ल मैन जसवंत सिंह राणा की वीरतापूर्ण लड़ाई और शहीद होने की घटना को याद दिलाता है। बोमडिला तक के रास्ते में भी सेना का एक बहुत बड़ा बेस दिखा था। यहाँ भी जगह-जगह सेना के कार्यालय दिखे। “फिकर नॉट’, ‘तगड़ा रहो’ आदि नाम भी कई जगह पढ़े, जो संभवत: बटालियन के नाम दिये संदेश हैं।सीमा सड़क संगठन का  एक स्मारक सेला पास में भी था। इंजीनियर व मज़दूर जो इतनी ऊँचाई पर इतने कठिन रास्तों को बनाते होंगे, वे सचमुच बहुत बहादुर होंगे। न जाने कितनों ने अपनी जान भी इस कठिन काम को करते समय गँवायी होगी। पहाड़ों को काट कर दुर्गम मौसम में रास्ते बनाना बेहद दुष्कर कार्य है। मई के महीने में जहां बर्फ गिरती है, वहाँ दिसंबर-जनवरी में तो बर्फ की चादर ढक जाती होगी। यहाँ के लोगों का जीवन कितना कठिन है। प्रकृति ने जहां एक और इतनी सुंदरता बिखेरी है, वही दूसरी ओर मानव के अस्तित्त्व  के लिए कठिनाइयों से भरा जीवन भी दिया है। मानव के भीतर की वह परमशक्ति जो चुनौतियों को पाकर भी घटती नहीं है, उसे साहस से भर देती है। तावांग आकर हमें इतना तो सीखना ही चाहिए कि मेहनत से कभी न घबरायें, शारीरिक श्रम को महत्व दें और चुनौतियों का सामना ख़ुशी-ख़ुशी करें। i   


इतनी ऊँचाई पर स्थित टूरिस्ट लॉज के प्रांगण में बैठकर धूप सेंकने का अवसर रोज़-रोज़ नहीं मिलता। पहाड़ों की धूप बहुत चमकदार और तेज होती है। यहाँ की स्वच्छ जलवायु स्वास्थ्यप्रद तो है ही। आज सुबह पाँच बजे से पहले ही हम उठ गये थे, खिड़की से देखा तो बर्फ से ढकी चोटी पर धूप चमक रही थी। आज हमें पुन: पहाड़ों, नदियों, झरनों और हिमशिखरों को देखने जाना है। “सौ दवा, एक हवा” का सूत्र सिखाता है कि बंद कमरों से निकल कर प्रकृति की गोद में बैठें, सूरज और धरती की वंदना करें, वही हमें जीवन देते हैं। 


आज सुबह साढ़े आठ बजे हम ‘पंकांग टेंग त्सो’ झील​​​​​​ देखने के लिए रवाना हुए। रास्ता कहीं-कहीं ख़राब था, पर हमारा ड्राइवर रामू दक्ष है, वह आराम से 13000  फीट की ऊँचाई तक ले गया। तावांग लगभग दस हज़ार फीट पर है। टूरिस्ट लॉज से जो हिमशिखर दिखायी दे रहे थे, वे नज़दीक आते जा रहे थे। मौसम स्वच्छ था, धूप में चोटियाँ चाँदी की तरह चमक रही थीं। रास्ते में हमें याक दिखे जो ढलानों पर कांटेदार झाड़ियों, विभिन्न प्रकार के पौधों, वृक्षों व घास के खेतों में घूम रहे थे। किसी-किसी के कान में पहचान के लिए उनके मालिकों ने कुछ पहना दिया था। पीले, लाल, गुलाबी और बैंगनी फूलों के पौधे भी रास्ते में यदा-कदा दिख जाते थे। फिर बर्फ दिखनी शुरु हुई, जो सड़क के दोनों ओर की पहाड़ियों पर दूर-दूर छितरी थी। जैसे रूई के फाहे बिछे हों। जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती गई, बर्फ की चादर घनी और विस्तृत होती गई।काली हरी पहाड़ी की चोटियों पर श्वेत बर्फ हम सभी के मनों में उल्लास भर रही थी। अद्भुत दृश्य था, जैसे हम स्वर्ग में आ गये हों। स्वर्ग भी क्या इससे सुंदर होता होगा ! हमारी सहयात्री महिला ने कहा,  ईश्वर भी अपनी बनायी इस रचना को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता होगा। वह भी हर दिन एक बार तो इसे देखने आता होगा। गुड्डू और उसके मित्र काकू को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह स्वप्न है या वास्तविकता। मुझे तो लगा हम सभी किसी दूसरे लोक में पहुँच गये हैं। प्रकृति का इतना मोहक रूप हमने पहले कभी नहीं देखा था। बर्फ कभी हमें तेंदुए के तन पर पड़े चक्कतों सी प्रतीत होती, कभी रूई के फाहों सी ! इतनी स्वच्छ व श्वेत थी कि सूर्य की किरणें उसे चाँदी की तरह चमका रही थीं। हिमालय के हिमशिखरों पर कितनी कविताएँ पढ़ीं थीं, पर उनका सौंदर्य आज जाना था। हम बर्फ पर चलने से स्वयं को रोक नहीं पाये, फिर तो अगले आधे घंटे तक बर्फ पर फिसलना, बर्फ के गोले बनाकर फेंकना व फ़ोटोग्राफ़ी करना, यही जारी रहा। चारों तरफ़ पहाड़, मध्य में घाटी, जिसमें फूलों के पेड़ जो अब बर्फ़ में छिप गये थे और नीचे एक झील थी। सामने के पर्वत शिखर भी चमक रहे थे। यह दृश्य कैमरे में क़ैद करने का प्रयास तो हमने किया पर उस सुंदरता को क़ैद करना बहुत मुश्किल है। इतने निकट से बर्फ की अद्भुत छटा को देखने का यह हमारा पहला अवसर था। दार्जलिंग तथा गंगोत्री में बर्फ़ दूर से ही देखी थी, उसे छूने का अवसर नहीं मिला था।हमने फिर वापस तो आना ही था, सड़क पर लौटते-लौटते चढ़ाई के कारण श्वास फूल गई थी, सभी के जूते भीग चुके थे। बच्चों के तो कपड़े भी भीग चुके थे। हम निकट स्थित सेना के कैंप में गये। वहाँ तीन-चार जवान थे। उन्होंने हमें चाय पिलायी तथा सूजी का हलवा प्रसाद रूप में खिलाया। गरम पानी भी दिया ताकि हम अपने पैर धो सकें। वापस आने से पहले हमने उनका नाम पूछा, बच्चों ने उनके साथ एक तस्वीर खिंचवाई। सभी बेहद थक चुके थे और भीग भी चुके थे सो वापस आ गये। दोपहर का भोजन यहाँ मिलने वाला नहीं था, सो हम बाज़ार में खाना खाने गये, बड़ी मुश्किल से एक जगह चावल तथा मिर्च वाली दाल व सब्ज़ी मिली, जो हम मुश्किल से ही खा पाये, हमने चाकलेट ख़रीदी और सब्ज़ी बाज़ार से खीरे व केले ख़रीद कर लाये।  


थोड़ी देर विश्राम करने के बाद हम तावांग गुम्फा  देखने गये। यह चार सौ वर्ष पुराना तिब्बतियन मठ है, जो सुबह से ही अपनी पीली छतों वाली इमारतों के कारण हमें दूर से ही आकर्षित कर रहा था। वहाँ भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति थी, दीवारों व छतों पर रंगीन आकर्षक आकृतियाँ बनी थीं। पूरे तावांग में ही तिब्बती संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दिखायी पड़ता है। हम तावांग वॉर मेमोरियल देखने भी गये, यह भारत-चीन युद्ध की स्मृति में बनी चालीस फ़ीट ऊँची इमारत है, वह भी तिब्बती स्तूप की आकृति में बनी है।यहाँ युद्ध में हत हुए शहीदों के नाम पढ़ते-पढ़ते मन भर आता है। भगवान बुद्ध की प्रतिमा वहाँ भी थी और द्वार भी तिब्बती वास्तुकला को दर्शाता है। पूरा तावांग ही दलाई लामा के स्वागत में लगाये गये झंडों से सजाया हुआ है। हम आर्ट और क्राफ्ट केंद्र भी गये, जहां कई कलात्मक वस्तुएँ थीं, हमने कुछ ख़रीदारी की। फिर वापस लौट आये। टूरिस्ट लॉज में हमारे वस्त्र बाहर धूप में सूख रहे थे, खिली हुई धूप में बाहर के मैदान से पुन: एक नज़र उन चोटियों पर डाली जिन्हें हम निकट से देख कर आये थे। गुम्फा के बाहर से नीचे घाटी में झांककर देखते समय मन में कई विचार व कल्पनाएँ उमड़ने लगी थीं। पेड़ इतने घने थे और घाटी इतनी गहरी, पहाड़ों की ढलान पर एक-दो अकेले मकान , जो दूर से दिखायी दे रहे थे, आकर्षित कर रहे थे। इतने सुंदर जंगल के दृश्य भी पहली बार इतने निकट से देखे थे, वह हरियाली जैसे पूरे निखार पर थी। पता नहीं पतझड़ में यह जंगल कैसे दिखते होंगे। हमारे जीवन में ऐसे अछूते पल कम ही आते हैं जब मन बिलकुल ठहर जाता है, हम सहज भाव से सभी कुछ स्वीकारते हैं और ख़ुशी को पूरी शिद्दत से महसूस करते हैं, ह्रदय जब पूर्ण रूप से एक ही बात को अनुभव करता है, पूरे सौ प्रतिशत ! हमारा तन, मन व आत्मा तब एक हो जाते हैं। ऐसे क्षण इस यात्रा में सभी ने महसूस किए हैं। हमारे अंतर्मन तृप्त हुए हैं, प्रकृति को हमने अपने मन की गहराई से सराहा है।हमने बर्फ की शीतलता को भीतर तक अनुभव किया, उसकी निर्मलता और श्वेतता हमारे मन को छू गई है। प्रकृति के प्रति और उसके सौंदर्य के प्रति आकर्षण ने हमें आपस में और निकट कर दिया है। हम सभी एक ही समय एक ही भाव को महसूस कर पाये, इसलिए यह यात्रा यादगार रहेगी। न जाने कितनी बार कितने जन्मों में हमने इस प्रकृति को निहारा है। यह भी शाश्वत है और हम भी ! प्रकृति के पीछे जो तत्व है वह अदबल है। हम कुछ ही देर में तावांग से जाने वाले हैं। ईश्वर का अनुग्रह हम सब पर है, कृपा ही तो है, जो हमारी यात्रा निर्विघ्न पूरी हो पायी है। 


टूरिस्ट लॉज बोमडिला 


शाम का वक्त होते ही यहाँ ठंड बढ़ जाती है। मैं कंबल ओढ़कर बैठी हूँ, साथ वाले दो कमरों में शेष लोग हैं। पतिदेव बरामदे में टहल रहे हैं। कुछ देर पूर्व हम यहाँ का बाज़ार देखकर आये हैं। शाम के नाश्ते में खाने के लिए, मैगी लाए, जो यहीं बनवा कर सबने खायी। साथ में अपनी पसंद के अनुसार काफ़ी या लाल चाय। आज सुबह आठ बजे हम तावांग से वापसी के लिए रवाना हुए। आज का मुख्य आकर्षण था, तावांग का मुख्य ‘नूरा नेहांग जल प्रपात’, जहां बिजली भी बनायी जाती है। ऊँची-नीची बलखाती सड़कों पर हमारा ड्राइवर दक्षता से गाड़ी चला रहा था, चारों ओर हिमाच्छादित पर्वतों की चाँदी सी चमकती चोटियाँ दिखायी दे रही थीं।दूर से ही वह जल प्रपात दिखायी दे रहा था, जहां हमें जाना था । घुमावदार सड़क से नीचे उतारते हुए ड्राइवर ने हाइड्रो पावर प्लांट के सामने ले जाकर गाड़ी रोक दी। वहाँ से दायीं और नज़र डाली तो जो दृश्य हमने देखा, वह अविस्मरणीय था। एक ऊँचे पहाड़ से दूध सा फेनिल विशाल जलप्रपात गिर रहा था, उसका शोर भी दूर से सुनायी दे रहा था। फुहारों की चादर सी तन गई थी। रास्ते में आने वाली चट्टानों पर ज़ोर से गिरता, ध्वनि करता झरना अपने वैभव का भरपूर प्रदर्शन कर रहा था। हम सीढ़ियों से उतरकर नीचे गये, झरना जहां ज़मीन को छू रहा था। उस के सामने ही पद्मा नदी भी अपने तेज बहाव के साथ नाचती हुई जा रही थी, झरने का जल उसी में मिल रहा था। फुहारों का वेग इतना तेज था कि वर्षा और तूफ़ान का सा आलम बन गया था। हम सभी के चेहरे भीग गये। शीतल फुहार कोहरे की मानिंद थी। कभी सूर्य की किरणों से इंद्रधनुष बनते-बिगड़ते नज़र आते तो कभी फुहारों से स्वयं को स्थिर रखना कठिन हो जाता। तब हम दूर जाकर नदी में पड़े बड़े-बड़े शिलाखंडों पर बैठ गये और दूर से जलप्रपात को निहारने लगे, वापसी का समय हो रहा था, सो हम लौट आये और पुन: बोमडिला की ओर चल पड़े। शेष यात्रा में हमें पूरे रास्ते पद्मा नदी व यदा-कदा झरनों के दृश्य मिलते रहे। सेना के कई पड़ाव भी जगह-जगह दिखे। शाम को चार बजे के लगभग हम इस टूरिस्ट लॉज में आ गये। कल सुबह हमें वापस असम जाना है।     




1 टिप्पणी:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द शनिवार 06 अक्बटूर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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