प्रेम
प्रेम कहा नहीं जा सकता
वैसे ही जैसे कोई
महसूस नहीं कर सकता
दूसरे की बाँह में होता दर्द
हर अनुभव बन जाता है
कुछ और ही
जब कहा जाता है शब्दों में
मौन की भाषा में ही
व्यक्त होते हैं
जीवन के गहरे रहस्य
शांत होती चेतना
अपने आप में पूर्ण है
जैसे ही मुड़ती है बाहर
अपूर्णता का दंश
सहना होता है
सब छोड़ कर ही
जाया जा सकता है
भीतर उस नीरव सन्नाटे में
जहाँ दूसरा कोई नहीं
किसी ने कहा है सच ही
प्रेम गली अति सांकरी !
बहुत ही सुंदर उद्भावना ! मन को गहरे छूती कविता ..
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रियंका जी, आप की उपस्थिति उत्साह जगाती है
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में गुरुवार 10 अप्रैल 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंKya keh diya aapne!!! Unbelievable!! Loved this poem.
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog
स्वागत व आभार !
हटाएं'प्रेम' निःशुल्क होते हुए भी इस जगत का सबसे महंगा सुख।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना।
सही कहा है आपने, सबके पास है पर सब ख़ाली हैं इससे,स्वागत व आभार !
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