शुक्रवार, अप्रैल 18

केंद्र और परिधि

केंद्र और परिधि 


परिधि पर ही खड़ा हो कोई 

तो याद केंद्र की

भूले-भटके ही आती है 

मिल जाये जीवन का केंद्र 

तो परिधि फैलती चली जाती है !


परिधि से केंद्र पर जाना 

ऐसा ही है 

जैसे सतह से तल तक जाना 

सागर से कुछ मोती-माणिक 

 पा लेना 

टूटे शंख व सीपियाँ ही 

मिलती हैं सतह पर !


केंद्र पर पहुँचा हुआ 

लौट नहीं सकता 

उसी परिधि पर 

जहाँ से चला था 

वह अनंत हो जाती है 

भीतर-बाहर हर सीमा 

खो जाती है !


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