भीतर एक नदी बहती है
भीतर एक नदी बहती है
लेकर कितने भेद हृदय में,
अंतर को सिंचित करती है !
उद्गम कहाँ ? कौन जानता
अंत भी अनदेखा ही रहता,
निर्मलता उर में भरती है !
तट पर कितने दुर्ग बनाये
युद्ध लड़े हारे जितवाए,
अनथक वह गतिमय रहती है !
सुर सरिता है यूँ भासता
देवलोक से आई भू पर,
मृत अतीत संग ले जाती है !
भावों की हाला भर उर में
मृदु मद्धिम गाती इक सुर में,
मंथर गति से इतराती है !