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सोमवार, मई 3

टूटते ख्वाब


टूटते ख्वाब


महसूस करें तो दुख बहुत है बाहर 

भीतर कुछ और क्यों बनाया जाए 


गुजर जाएगा वक्त ही है आखिर यह 

बुरा कहकर क्यों खुद को सताया जाए 


लगा हुआ है हर शख्स अपनी कुव्वत से 

कैसे वायरस को जिस्म से भगाया जाए 


दम तोड़तीं श्वासें कभी जलती हुईं देहें 

किस-किस मंजर से ध्यान अपना हटाया जाए 


बहुत बेमुरव्वत है जिंदगी सुना तो था 

छोटे बच्चों को कैसे यकीं दिलाया जाए 


टूटते ख्वाबों  को देखा है हर किसी  ने  

टूटती साँसों को किस तरह बचाया जाए 


खत्म होगी दुनिया कभी किताबों में पढ़ा था 

कतरा-कतरा क्यों इसका वजूद मिटाया जाए 

 

बुधवार, जुलाई 29

साक्षी

साक्षी 

बनें साक्षी ? 
नहीं, बनना नहीं है 
सत्य को देखना भर है 
क्या साक्षी नहीं हैं हम अपनी देहों के 
शिशु से बालक 
किशोर से प्रौढ़ होते ! 
क्या नहीं देखा हमने 
क्षण भर पूर्व जो मित्र था उसे शत्रु होते  
अथवा इसके विपरीत 
वह  चाहे जो भी हो 
वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति 
क्या देख नहीं रहे हैं हम 
एक वायरस को दुनिया चलाते हुए 
थाली में रखे भोजन को 
‘मैं’ बन जाते हुए 
नित्य देखते हैं कली को खिलते 
नदियों को बाढ़ में बदलते 
भूमि को कंपते हुए
सिवा साक्षी होने के हमारा क्या योगदान है इनमें 
चीजें हो रही हैं 
हमें बस उनके साथ तालमेल भर बैठाना है 
जैसे बरसता हो बादल तो सिर पर एक छाता लगाना है  ! 


गुरुवार, अप्रैल 23

घर पर ही रहें

घर पर ही रहें


जिंदगी गणित के सूत्रों से नहीं चलती 
एक छोटा सा वायरस 
जो छुपा है एक आदमी में 
अनेक आदमियों में फैल सकता है 
एक वायरस... 
सारे गणित को फेल कर रहा है 
जो ग्रस लेता है 
पूरे परिवार को देखते-देखते 
वायरस ने आपको छुआ है या आपने उसे 
पता भी नहीं चलने देता 
आप मुस्कुराते-मुस्कुराते मिल लेते हैं चंद लोगों से 
या रख देते हैं अपना रुमाल मेज पर 
जो बन चुका है जैविक हथियार 
अनजाने में जो भी उठाएगा 
वह भी धोखे में आ जायेगा 
एक दिन आपका माथा तपता है 
आप अस्पताल चले जाते हैं 
वहां भी यदि नही रहे सचेत तो
सरक जाते हैं कुछ वायरस स्वास्थ्य कर्मी या नर्स पर 
... या कभी डॉक्टर पर 
अनजाने में आप बन चुके हैं वाहक 
भगवान न करे कभी ऐसा घटे  
इसीलिए घर पर ही रहें  !