खामोश खामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं, वाराणसी
में जन्मी व पढीं डा. माधुरी लता पाण्डेय. सम्प्रति माधुरी जी अध्यापनरत
हैं. इनका इ-मेल पता है- mip.7.n.63@gmail.com तथा ब्लॉग का पता है- http:/kavyanjali-madhuri.blog.spot.com,
लिखना-पढ़ना, भारतीय संगीत सुनना एवं गुनगुनाना, घूमना और प्रकृति को निहारना
उन्हें भाता है. इन्होंने अपना काव्यात्मक परिचय कुछ ऐसे दिया है-
मुझ
से मत पूछो मेरा गांव 
सृष्टि
विद्या का अंग बनी हूँ 
पवन
सरीखा बहता जीवन 
इक
तरुवर पारा पाया ठांव 
है
आदि अंत, अनभिज्ञ अनंत 
सुदृढ़
तटबंधों वाली सरिता सा 
पड़ता
नहीं किनारे पांव 
इस
पुस्तक में इनकी छह कवितायें हैं. विभिन्न विषयों पर लिखी ये कवितायें गहरे भावों
तथा सुंदर, सहज भाषा के कारण पठनीय हैं. इनमें प्रकृति का भी मनहर चित्रण हुआ है.
पहली कविता है-  
मैं
नदी हूँ 
लहर
के प्रतिघात को 
थामे
हुए तटबंध वाली 
मैं
नदी हूँ 
बह
रही हूँ 
...
उल्लसित
सी 
गान
करती 
..
संताप
हरती 
सजल
विस्तार हूँ 
मैं
नदी हूँ 
बह
रही हूँ 
उफनती
जब गांव में 
तो
सिमट आते 
तप्त
आदम 
जर्जरित
से शाख-तरु 
..
हृदय
में धार लेती 
सिमट
आती पुनः अपनी ही 
छाती
में- 
बड़ी
आधार हूँ !
मैं
नदी हूँ 
बह
रही हूँ 
चटकती
धरती गुजरते 
मेघ
का परिहार करती 
आम्र,
वट, पीपल सरीखे 
गर्भ
का संभार वरती
..
मैं
नदी हूँ 
बह
रही हूँ 
बोलो
अब क्या राग सुनाऊं एक बंजारन की कथा-व्यथा है जो अपनी टोली से दूर है और
दूर है अगले पड़ाव से भी-
मैं
बंजारन ठाठ लिए पथराई बैठी 
बोलो
अब क्या गीत सुनाऊं?
मस्ती
भूली, टोली बिखरी 
ढपली
पर क्या थाप लगाऊँ?
...
रात
घिर रही बियाबान है 
..
कितनी
दूरी पर सराय है 
अब
यह कैसे पता लगाऊँ?
बस्ती
पर्वत नाप लिए हैं 
रस्सी
पर चलकर देखा है 
दो
तली दो सिक्के बांधे
मन
में किसका ठौर लगाऊँ?
...
धौल
धूम, धुप्पल के आगे 
बोलो
अब क्या राग सुनाऊं
पृष्ठ
का श्रृंगार एक साक्षी भाव में लिखी गयी एक सुंदर कविता है, जिसमें
कवयित्री पंक्ति दर पंक्ति कोरे पन्ने को शब्दों से सजते हुए देखती है जब कोई कवि
या लेखक अपने भावों व विचारों को उस पर अंकित करता है-
हाशिए
पर खड़ी रहकर 
देखती
हूँ-
पृष्ठ
की सजती हुई हर पंक्ति !
...
कहीं
बेबाक सी हैं पंक्तियाँ 
कहीं
है भाव विह्वल 
थके-हारे
दिखलाई पड़े 
विश्राम
स्थल.
..
प्रश्न-उत्तर
के 
क्रमों
की डोर थामे 
हाशिए
पर खड़ी रहकर 
मौन
होकर देखती हूँ
..
काफिये
और हाशिए के बीच का संवाद 
फिर
रचेगा व्यूह उपसंहार का 
पृष्ठ
का श्रृंगार यूँ ही 
बन
पडेगा 
जब
फिर रचेगा व्यूह उपसंहार का 
इनकी
अगली कविता है, अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा जिसमें पंछी के बहाने जीवन
के परिवर्तन और हर पल घटती हुई एक प्रतीक्षा, एक भय का बखूबी चित्रण हुआ है-
अम्बर
के साये में बैठा एक परिंदा 
ऋतुओं
के सैलानीपन को भाँप रहा है 
सड़क-सड़क
से पगडंडी से पगडंडी तक 
आने-जाने
वाला रास्ता नाप रहा है 
...
दाने-दाने,
तिनके-तिनके 
इनके-उनके,
उनके-इनके 
लिए
चोंच में प्राण-पखेरू 
जन-मन,
तन-धन आंक रहा है 
...
आखेटक
हैं जल बिछाए 
...
अंदर
रखे सुनहले पिंजरे 
को
वह भोला तक रहा है 
आने-जाने
वाला रास्ता नाप रहा है 
अम्बर
के साये में बैठा एक परिंदा 
स्वप्न
और जीवन एक दूसरे में गुंथे है, स्वप्न देखना और उन्हें कभी पूर्ण होते हुए तो कभी
टूटते हुए देखना मानव की नियति है, स्वप्न निर्झर से बहे हैं में इन्हीं
स्वप्नों की करुण कहानी है-
स्वप्न
निर्झर से बहे हैं 
स्रोत
है दीखता नहीं है 
कहीं
छुपते, कहीं रुकते 
गिरे
गहरे अतल में 
कितने
दुःख सहे हैं !
स्वप्न
निर्झर से बहे हैं 
..
..
पारदर्शी
रूप ले 
अभिसार
कर 
मोहिनी
सुधि ले 
हर पल
चले हैं !
स्वप्न
निर्झर से बहे हैं !
..
अंधकारों
में उलझते 
ज्योत्स्नाओं
से सुलगते 
हर
सुबह कुछ सर्द 
बूंदों
में ढले हैं !
स्वप्न
निर्झर से बहे हैं 
माधुरी
जी की अंतिम कविता रहस्यवादी है, सखि की सजनी, सजनी की सखि में उस अनजाने
सजन की प्रतीक्षा में रत सखि के माध्यम से गहन जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है-
सुंदर
बन्दनवार सजाये
खुले
द्वार पर आँख टिकाये 
किसको
देखा करती पगली ?
जो
तेरे होकर न आए ?
सपनों
में झिलमिल तारे भर 
...
चल
उठ उनकी अगवानी कर
..
आहा
! निशा के वलय क्रोड में
किसकी
गरमाई सांसे हैं ?
कौन
सुहागन सिसकी भरती
किसकी
शरमाई सांसे हैं ?
..
द्वंद्व
जगत का ताना-बाना
यहाँ
सदा ही आना-जाना 
..
बांच
रही है पाती किसकी 
जग
है जिसका तू है जिसकी ? 
यहीं
ठहर जा, समझ गयी तू 
सखि
की सजनी, सजनी की सखि.
कवयित्री
माधुरी की कविताएँ प्रकृति के सहज उल्लास, भावनाओं की मधुरता और सामान्य जीवन में
छुपे सौंदर्य की ओर पाठक का ध्यान सहज ही ले जाती हैं, आशा है सुधी पाठकों को भी
ये भाएँगी.