जीवन मधुरिम काव्य परम का
फिरे सहज श्वासों की माला
मन भाव सुगंध बने,
जीवन मधुरिम काव्य परम का
इक सरस प्रबंध बने !
जगती के इस महायज्ञ में
आहुति अपनी भी हो,
निशदिन बंटता परम उजास
मेधा ही ज्योति हो !
शब्द गूँजते कण-कण में नित
बांचें जान ऋचाएं,
चेतन हो हर मन सुन जिसको
गीत वही गुंजायें !
शुभता का ही वरण सदा हो
सतत जागरण ऐसा,
अधरों पर मुस्कान खिला दें
हटें आवरण मिथ्या !
उसकी क्षमता है अपार फिर
क्यों संदेह जगाएं,
त्याग अहंता उन हाथों की
कठपुतली बन जाएँ !
उसकी क्षमता पे क्या सच में विश्वास है हमें ... क्या आँखों के सामने धूर्त आवरण नहीं है हमारी ... शायद इसीलिए उसपे विश्वास नहीं है ... ये सच है की ऐसा होना चाहिए पर ... कितना बड़ा पर है ये ... गहरी रचना ... आध्यात्म से भरपूर ...
जवाब देंहटाएंअज्ञान का पर्दा ही उसे ढक लेता है, जो बार-बार उसकी क्षमता पर अविश्वास कर बैठते हैं, लेकिन भीतर अभीप्सा गहरी होगी तो एक दिन सारे पर्दे उठ जायेंगे, स्वागत व आभार !
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