मंगलवार, अप्रैल 28

तू ही दाता

तू ही दाता


‘देने’ को कुछ न रहा हो शेष 
जब आदमी के पास 
तब कितना निरीह होता है वह ! 

देना ही उसे आदमी बनाये रखता है 
मांगना मरण समान है 
खो जाता जिसमें हर सम्मान है !
देना जारी रहे पर किसी को मांगना न पड़े 
ऐसी विधि सिखा रहा आज हिंदुस्तान है !

पिता जैसे देता है पुत्र को 
माँ  जैसे बांटती है अपनी सन्तानों को 
उसी प्रेम को भारत के जन-जन में प्रकट होना है 
ताकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ मानन वाली इस संस्कृति की 
बची रहे आन,आँच न आए उसे !

जहां अनुशासन और संयम 
केवल शब्द नहीं हैं शब्दकोश के 
यहां समर्पण और भक्ति
 कोरी धारणाएं नहीं हैं 
यहां परमात्मा को सिद्ध नहीं करना पड़ता 
वह विराजमान है घर-घर में 
कुलदेवी, ग्राम देवी और भारत माता के रूप में !

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