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मंगलवार, नवंबर 19

कोई

कोई 


कोई निकट ही नहीं 

बहुत निकट है 

पल-पल देख रहा है

देह की हर शिरा का स्पंदन 

प्राणों का आलोड़न 

मन का सहज आनंद 

झट ‘तथास्तु’ कह कर मुस्का देता है 

और वही देख चुका है 

देह की जड़ता 

प्राणों की आतुरता 

मन का रुदन 

पर तब हामी नहीं भरी थी  

प्रकाश की आस जगायी थी 

सहलाया था अदृश्य हाथों से 

घोर अंधेरों में !



सोमवार, मार्च 25

​​जीवन बँटता ही जाता है

​​जीवन बँटता ही जाता है 


झोली भर-भर कर ले जाओ 

चुकता कब उसका भंडारा,

  चमत्कार यह देख न पाये

जग नूतन चाह जगाता है !


जीवन बँटता ही जाता है !


कण-कण में विश्वास भरा है 

अणु-अणु में गति भर दी किसने, 

सुमधुर, सुकोम, सरस स्वर में 

कोई भीतर से गाता है !


जीवन बँटता ही जाता है !


चट्टानों के भीतर जीवन 

अग्नि गुफाओं में भी सर्जन 

जल, अनिल, अनल, नभ को धारे 

यह धरती माँ सा भाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


स्थूल, सूक्ष्म, कारण इन तीनों 

देहों के पार वही सच है, 

मन उस समता में जागे नित

हर द्वन्द्व जहां गिर जाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


हर रूप वही आकार वही 

भावना, विचार, हर ध्वनि  वही, 

पादप, पशु, पंछी, बादल में 

वह पावन ही दिख जाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


है शिव से न शक्ति विलग कभी 

मन-प्राण समोहित से रहते, 

श्वासों का जो आधार बना 

वह गीतों में गुंजाता है !


शुक्रवार, नवंबर 11

अब तो इक ही धुन बजती है

अब तो इक ही धुन बजती है


अब जब तुम हो साथ हमारे 

 खोज रहे तब भला किसे हम, 

श्वासों में हो,  प्राणों  में तुम 

ढूँढे भला किसे नादां मन !


वाणी मुखर नहीं अब रहती 

सिमट शब्द ज्यों  भीतर सोए, 

 निशदिन उस का साथ मिला है 

जिसे पुकारा करते थे वे  !


यूँही समय बिताने ख़ातिर 

आँख मिचौली खेल रहे थे, 

ढूँढने का बहाना करते

तुम तो सारा वक्त यहीं थे  !


कैसे कहें तुम्हारी  बातें 

बढ़ा गयी थीं दिल की धड़कन,

जब आँखों में फूल खिले थे 

कैसे दें उस पल का विवरण!


कोई बोध नहीं पाया है 

 किया न कोई कर्म अनूठा,

 कैसे साधें भक्ति भला जब 

पृथक नहीं तुमको जाना है !


दुःख बिसराया सुख भी छूटा 

अब तो इक ही धुन बजती है, 

तुम हो, जग है, नयन देखते 

पल-पल यह धरती सजती है !


एक लगन भीतर जागी थी 

जिसने अब अधिकार किया है, 

उसे छुड़ाया जो पकड़ा था 

केवल अजर दुलार दिया है !


रविवार, अक्टूबर 9

अभी शेष है जीना

अभी शेष है जीना


जीने की तैयारी में ही 

लग जाती है सारी ऊर्जा 

घर को सजाते-सँवारते 

थक जाते हैं प्राण 

 मन को सहेजते-सहेजते  

चुक जाती है शक्ति 

फिर कब जियेगा कोई 

और बिखेरेगा प्रेम 

 संगीत सुनेगा 

पंछियों और हवाओं का 

साज बैठाते-बैठाते ही 

शाम ढल जाती है 

अभी सुर सध ही नहीं पाता 

और थम जाती है रफ्तार 

हिसाब-किताब करते 

 रह जाता है पीछे हर बार इजहार !



 

गुरुवार, अप्रैल 7

उर तोड़े हर बंधन

उर तोड़े हर बंधन

जीवन में छंद बहे 

मन में मकरंद गहें, 

रस धार झरे अविरत 

कान्हा यदुनंद कहें !

 

श्वासों में सुमिरन हो 

नयनों से हो वंदन, 

स्पंदित हों प्राण सदा 

उर तोड़े हर बंधन !

 

जो दिखता इक भ्रम है 

मिथ्या में क्या श्रम है, 

दुर्गम है सच का पथ 

मर कर मिटता क्रम है !

 

मरता भी कौन भला 

पहले ही जो मृत है, 

मिटकर भी शेष रहे 

निजता ही शाश्वत है !


मंगलवार, सितंबर 29

नाचती इक ऊर्जा ही

नाचती इक ऊर्जा ही 


नित नवीन निपट अछूती

इक मनोहरी ज्योत्स्ना है,

सुन सको तो सुनो उसकी 

आहट ! यह न  कल्पना है !


गूँज कोई नाद अभिनव 

हर शिरा में बह रहा है,

वह अदेखा, जानता सब 

न जाने क्या कह रहा है !


आँख मूँदे श्रवण रोके 

झाँक अंतर मन टटोलो, 

ज्योति की इक धार बहती 

हृदय की हर गाँठ खोलो !


नाचती इक ऊर्जा ही 

प्राण बनकर संचरित है, 

जानती सब पर अजानी

पुष्प बन कर उल्लसित है !

 

मंगलवार, अगस्त 25

बैठ हवा के पंखों पर ही

 बैठ हवा के पंखों पर ही 

सर-सर मर्मर पवन बह रही  

ठंड अति कभी ताप सह रही,

शीतलहर में ठिठुराती तन

स्वेद बहे यदि तप्त हो गयी !

 

कभी धूलि का उठे बवंडर 

छूकर आती कभी समुन्दर, 

चलती कभी पवन पुरवाई 

मंद झँकोरा अति सुखदायी !

 

हवा जलाती, हवा बुझाती

हवा उड़ाती, हवा सुखाती, 

प्राणों का आधार हवा है 

जीवन का भी द्वार हवा है !

 

प्रातः समीरण अति सुखदायी

हौले से सहलाने आती, 

बेला, चंपा की सुवास भर 

रजनी गंधा को महकाती !

 

झूम रहे जब खेत बाग वन 

दृश्य अति लगते वे मनोहर, 

हवा डुलाती हौले-हौले 

झूमें लहरें झील, नदी पर ! 

 

बासों से हो  हवा गुजरती 

सांय-सांय का गीत गूँजता,

छम-छम पत्तों का भी नर्तन 

संग पवन तृण गगन चूमता !

 

संग पवन के उड़ते-उड़ते 

बीज सुदूर यात्रा करते, 

बैठ हवा के पंखों पर ही 

यहाँ-वहाँ गिर भू पर उगते !

 

पंच प्राण प्राणी के भीतर 

गतियां सब संचालित करते, 

वायु बिना सब स्थिर हो जाये 

वायुदेव ही जीवन भरते !

 

हवा बदलियों को  ले जाती 

जीवन का आधार बनी है, 

कोमल शीतल परस पवन का 

महादेव का  महाभूत है !

 

अति सूक्ष्म तत्व प्रवाह रूपी 

भूमंडल को घेरे रहती, 

जैसे अपने आँचल में ले 

शिशु को माँ संभाले रहती !

 


रविवार, जुलाई 19

कैसे कोई समझे उसको


कैसे कोई समझे उसको 
 

वह अजर अमर, है अटल शिखर 
अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप रहा, 
कुसुमों से भी कोमल उर है 
बन मानव हर संताप सहा !
 
लघु पीड़ा से व्याकुल होता 
प्रियजन पर प्रेम लुटाता है, 
जब कोई राह भटक जाता 
करूणाकर पुनः दिखाता है !
 
वह वाणी का मर्मज्ञ बड़ा 
रसिक दिलदार रसज्ञ भी है, 
प्रकृति ने अनेकों रूप धरे 
भरे प्राण उन्हें डुलाता है !
 
जड़ चट्टानों से झर निर्झर
उससे ही बह चैतन्य हुए,
अग्नि की लपटों में प्रज्ज्वलित 
वायु के प्रचंड झकोरों में !
 
असीम अंबर सा व्याप्त रहा 
सब लीला उसमें घटती है, 
कैसे कोई समझे उसको 
मेधा भी उससे झरती है !
 
वह शिव भी है शक्ति भी वही 
वह एक बहुत अलबेला है,
उसको भजता मन जिस क्षण जो  
रहता ना कभी अकेला है !
 

गुरुवार, अक्टूबर 30

प्राणों में बसंत छाएगा

प्राणों में बसंत छाएगा


फूल चढ़ाए जाने कितने
फिर भी दूर रहा वह प्रियतम,
प्राणों में बसंत छाएगा
अर्पित होगी जिस पल धड़कन !

कोरा कोरा नाम जपा था
फिर कैसे रस उपजे बाड़ी,
उससे भी तो जग ही माँगा
निर्झर बहा न विकसी क्यारी !

वह तो लुटने को है आतुर
यहाँ जमाए अपनी धूनी,
कैद किया सीमा में खुद को
हर कोई बन गया अलूनी !

कतरा कतरा रस में भीगा
रग रग में बह रहा छंद सा,
मंद स्वरों में रुनझुन गूँजे
जैसे झरता फूल गंध सा  !

क्यों फिर दूर रहे जग उससे
भेद न जाने विस्मित अंतर,
जहाँ सुखों की लहर दौड़ती
वहाँ गमों सा लगे समुन्दर !







सोमवार, जुलाई 21

झुका समपर्ण में जब मस्तक


झुका समपर्ण में जब मस्तक


सैकत पर लहरें सागर की
छोड़ चलीं ज्यों सीपी, शंख
उर के इस खाली दर्पण पर
स्मृतियों की बह गयी तरंग !

सेतु बनाया उन सुधियों को
सृजन किया इक भावालोक,
आवाहन कर प्राण प्रिय का
रचा महावर मिटाया शोक !

सुषमा अतुलित सुरति सुभग है
 सिंहावलोकन भी आवश्यक,
तब तब प्राण हुए आलोड़ित
झुका समपर्ण में जब मस्तक !


गुरुवार, मई 15

एक सनातन वृक्ष जगत है

एक सनातन वृक्ष जगत है


प्रकृति में ही सदा अवस्थित
सुख-दुःख दो फल धारण करता,
त्रिगुण रूप की हैं जड़ें हैं गहरी
एक सनातन वृक्ष जगत है !

पंच भूत, मन, बुद्धि आदि
है अष्ट शाखाओं वाला
सप्त धातुएं छाल बनी हैं
एक सनातन वृक्ष जगत है !

नव द्वार के कोटर धरता
दस प्राण हैं पत्ते जिस पर
रस देता पुरुषार्थ रूप में
एक सनातन वृक्ष जगत है !

पंच इन्द्रियों से जाना जाता
उत्पन्न होकर बढ़ता, मिटता
दो पंछी रहते हैं जिस पर
एक सनातन वृक्ष जगत है !