शुक्रवार, नवंबर 20

प्रेम से कोई उर न खाली

 


प्रेम से कोई उर न खाली
 

एक बूंद ही प्रेम अमी की

जीवन को रसमय कर देती,

एक दृष्टि  आत्मीयता की

अंतस को सुख से भर देती !

 

प्रेम जीतता आया तबसे

जगती नजर नहीं आती थी,

एक तत्व ही था निजता में

किन्तु शून्यता ना भाती थी !

 

 स्वयं शिव से ही प्रकटी  शक्ति 

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !

 

हुए एक से दो थे जो तब

 एक पुन: वे  होना चाहते, 

दूरी नहीं सुहाती पल भर

प्रिय से कौन न मिलन मांगते !

 

खग, थलचर या कीट, पुष्प हों

प्रेम से कोई उर न खाली,

मानव के अंतर ने जाने

कितनी प्रेम सुधा पी डाली !

 

करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य

ढाई आखर सभी पढ़ रहे,  

अहंकार की क्या हस्ती फिर

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !   

8 टिप्‍पणियां:

  1. खग, थलचर या कीट, पुष्प हों

    प्रेम से कोई उर न खाली,

    मानव के अंतर ने जाने

    कितनी प्रेम सुधा पी डाली ! ..बहुत ही खूबसूरती से प्रेम को परिभाषित किया है आपने..वाक़ई प्रेम का बहुत ही विस्तृत संसार है..।।

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  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 22 नवंबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. प्रेम अमी की बुंदे बरसे ....

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