शनिवार, अक्तूबर 1

आतुर है सूरज उगने को





आतुर है सूरज उगने को

श्वासें महकें  अंतर चहके 
पल पल नव गीत बजें भीतर,
जीवन जो भी भेंट दे रहा
स्वीकारें उत्साहित  होकर !

कभी-कभी ढक गया उजाला
कुछ भी नजर नहीं आता है, 
खुशियों के पीछे-पीछे ही
गम का दूत चला आता है !

लेकिन बादल कब तक आखिर
अंशुमान को ढक पाए हैं,
कब तक पर्वत रोक सकेंगे 
तूफान से टकराए हैं !

चलते जाना है रस्ते पर, 
कंटकमय या पथरीला है,
मंजिल दूर नहीं है साथी
अनथक थोड़ा सा चलना है !

खाली करके मन में भर लें, 
नए जोश औ' नए होश को,
उपवन बन जाये मन आंगन,
आतुर है सूरज उगने को !

हर उत्सव संदेशा लाया, 
थम कर थोड़ा भीतर झाँकें 
दुःख के पीछे छिपा हुआ जो, 
सुख के उस दरिया को पाके  I



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