मंगलवार, मार्च 14

हम ही तो बादल बन बरसे

हम ही तो बादल बन बरसे 


तुझमें मुझमें कुछ भेद नहीं 

मैं तुझ से ही तो आया है, 

अब मस्त हुआ मन यह डोले 

सिमटी यह सारी माया है !


यह नीलगगन, उत्तांग शिखर 

उन्मुक्त गर्जती सी लहरें, 

अपने कानन, उपवन, राहें 

टूटे सारे जो थे पहरे !


हम ही तो बादल बन बरसे 

हमने ही रेगिस्तान गढ़े,

सागर में मीन बने तैरे 

अंबर में उच्च उड़ान भरें !


जब  समझ न पाए पागल मन 

दीवानों सा लड़ता रहता, 

जो हर अभाव से था ऊपर

कुछ हासिल करने को मरता !


जब दुःख को सच्चा माना

आँखों से उसे बहाया था, 

फिर खुद को कुछ माना उसने 

तब व्यर्थ बड़ा इतराया था !


गर झांक ज़रा भीतर लेता 

अम्बार लगे हैं ख़ुशियों के, 

जब व्यर्थ खोजता फिरता है 

वंचित ही रहता है उनसे !



10 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी आत्मा की आवाज पहचान ली तो यह जग जीत लिया समझो। . बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 15 मार्च 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम

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  3. गर झांक ज़रा भीतर लेता
    अम्बार लगे हैं ख़ुशियों के,
    जब व्यर्थ खोजता फिरता है
    वंचित ही रहता है उनसे !
    बहुत सुंदर । बहुत बधाइयां आदरणीय ।

    जवाब देंहटाएं
  4. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (16-3-23} को "पसरी धवल उजास" (चर्चा अंक 4647) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  5. जब समझ न पाए पागल मन

    दीवानों सा लड़ता रहता,

    जो हर अभाव से था ऊपर

    कुछ हासिल करने को मरता !
    वाह!!!!
    गहन भाव...
    र अभाव से ऊपर हैं फिर भी कुछ पाने की लालसा...
    ये भाव अभाव और लालसाएं भी उसी की देन हैं ... इस रंगमंच को रंगीन बनाने हेतु

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    उत्तर
    1. रंगीन बनाने तक तो ठीक है पर इसके लिए खुद को व औरों को दुखी करना ठीक नहीं, स्वागत व आभार सुधा जी!

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