गुरुवार, मार्च 9

सच है न !

सच है न ! 

सच को झुठलाते हैं हम 

लाख छुपाते भी हैं 

भूल जाना चाहते हैं उसे 

सच से मूँद लेते हैं आँखें 

डरते भी हैं

दरकिनार कर उसे 

झूठ का एक ताजमहल खड़ा कर लेते हैं 

पर वह टिकता नहीं 

टिक सकता नहीं 

सच अनावृत होता है 

और सब बिखर जाता है 

अदेखा कर के भी कोई 

सच से बच नहीं सकता 

भीतर-भीतर कुरेदता रहता है 

सच कितना भी कड़वा हो 

उसे घूँट-घूँट पीना ही  होता है  

उसकी नींव पर खड़ी होती है 

प्रेम की इमारत 

सच की स्याही से लिखी जाती है 

कभी न मिटने वाली इबारत ! 



9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार यशोदा जी!

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  2. बहुत सुंदर, पावन पर्व की अशेष शुभकामनाएं

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  3. प्रेम की इमारत

    सच की स्याही से लिखी जाती है

    कभी न मिटने वाली इबारत !
    वाह!!!

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