शुक्रवार, नवंबर 10

चिनार की छाँव में


यात्रा विवरण - द्वितीय भाग

चिनार की छाँव में


सुबह साढ़े आठ बजे हाउसबोट से उस शिकारे पर सारा सामान रखवाया गया, जो हमें घाट संख्या नौ पर ले जाने आया था।गर्म कपड़ों के कारण छोटे-बड़े सूटकेस व बैग कुल मिलाकर दो दर्जन से ज़्यादा नग हो गये थे। शिकारे में अब भी काफ़ी जगह थी, एक अन्य हाउसबोट से तीन जन के एक परिवार को भी सामान सहित उसमें बैठाकर नाविक हमें झील से गुजार कर ले जाने लगा। सुबह का वातावरण, हवा में ठंडक और धुंध के कारण सब कुछ एक स्वप्निल दृश्य सा उपस्थित कर रहा था। बीती शाम को रोशनियों से झील जगमगा रही थी। सड़क किनारे व पंक्तिबद्ध खड़ी अनेकों नावों में लगी रंगीन बत्तियाँ पानी में झिलमिला रही थीं, पर सुबह के समय पानी में उगी वनस्पतियाँ, कमल के हरे विशाल पत्ते, कुमुदनी के झुरमुट और बीच-बीच में तैरती हुईं मुर्ग़ाबियाँ और बत्तख़ें डल झील के सौंदर्य को बढ़ा रही थीं।रास्ते में नावों पर फूल बेचने वाले एक व्यक्ति से बात हुई। उसने बताया, छह किलोमीटर दूर  एक गाँव में उसके खेत हैं। कड़कती हुई सर्दी में वह सुबह ही फूल व बीज बेचने निकल जाता है।घाट पर टेम्पो ट्रैवलर का ड्राइवर ज़फ़र प्रतीक्षा कर रहा था, वह अगले एक सप्ताह हमारे साथ रहने वाला है। 


हमारा पहला पड़ाव श्रीनगर से सिर्फ 20 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा शहर पोंपोर था, पूरे कश्मीर में यही एक स्थान है, जहाँ केसर की खेती होती है। ड्राइवर हमें एक बड़ी दुकान में ले गया, जिससे होकर हम खेतों तक पहुँच गये। एक किसान ने बताया,  केसर विश्व का सबसे कीमती पौधा है। केसर यहां के लोगों के लिए वरदान है। क्योंकि केसर की कीमत बाज़ार में दो से ढाई लाख रुपये प्रति किलो है।उसने कुछ पौधे एक गमले में उगाये  थे, हमने देखा, केसर के पौधे में घास की तरह लंबे, पतले व नोकदार पत्ते निकलते हैं। खेतों में अभी फूल नहीं आये थे। पंपोर के खेतों में शरद ऋतु आते ही केसर के बैंगनी रंग के फूल खिलने लगते हैं। इनके भीतर लाल या नारंगी रंग के तीन वर्तिकाग्र पाए जाते हैं। यही केसर कहलाता है। लाल-नारंगी रंग के आग की तरह दमकते हुए केसर को संस्कृत में 'अग्निशाखा' नाम से भी जाना जाता है।इन फूलों की इतनी तेज़ खुशबू होती है कि आसपास का क्षेत्र महक उठता है। केसर की गंध तीक्ष्ण और स्वाद कटु होता है। केसर को निकालने के लिए पहले फूलों को चुनकर किसी छायादार स्थान में बिछा देते हैं। सूख जाने पर फूलों से केसर को अलग कर लेते हैं। उस दुकान में केसर के अलावा विभिन्न सूखे मेवे, अखरोट, गुलाबज़ल, बादाम, कहवा पाउडर व मिश्रण और केसर मिलाकर बनाये कई अन्य उत्पाद भी मिले। दुकान के कर्मचारी बहुत अच्छी तरह हरेक खाद्य वस्तु को ख़रीदने से पहले खाकर देखने को कह रहे थे।मामड़ा बादाम, काग़ज़ी अखरोट, ब्लू बेरी का स्वाद भी सबने  लिया, केसर व बादाम युक्त कहवा पीया। 


श्रीनगर से पहलगाम जाते वक़्त रास्ते में बहुत सी दुकानों में और सड़क किनारे भी क्रिकेट के बल्ले टंगे दिख रहे थे। हम आगे चले तो ड्राइवर कश्मीर विलो क्रिकेट बैट्स की एक दुकान में ले गया; उसके पीछे ही फ़ैक्ट्री थी। वहीं विलो के कुछ पेड़ भी लगे थे, जिसकी लकड़ियों को काट कर सुखाने के लिए छत पर रखा गया था।विश्व में इंग्लैंड के बाद कश्मीर दूसरा सबसे बड़ा स्थान है, जहां विलो का पेड़ उगता है। इन पेड़ों को तैयार होने में लगभग 10 से 12 साल लग जाते हैं। पेड़ के तने से लकड़ी के समान टुकड़ों को  काटकर सुखाया जाता है, इसमें लगभग डेढ़ साल का समय लगता है फिर बैट तैयार कर के बाज़ार में आता है।एक औसत पेड़ से लगभग 100 से लेकर 200 तक बैट निकल जाते हैं। हमने एक कक्ष में बनते हुए बैट भी देखे तथा पुत्र के लिए एक बैट ख़रीदा। जिसे हल्का करने के लिए उसके ऊपरी भाग से कुछ लकड़ी को निकल दिया गया था तथा नमी को और कम करने के लिए हल्की आग से गुजारा गया था। दुकानदार ने कहा, बैट हमारे घर पहुँचने से पहले ही कोरियर द्वारा पहुँच जाएगा। इसके बनाने में हाथों की कलाकारी भी ज़रूरी है और खास मशीनों का इस्तेमाल भी होता है।


क्रमश:


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