मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ? 


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