शुक्रवार, अगस्त 15

पंख मिले इसके सपनों को


भारत के उन्यासिवें स्वतंत्रता दिवस पर 

हार्दिक शुभकामनाओं सहित 


रोक सकेगा नहीं विश्व यह 

भारत के बढ़ते कदमों को, 

विश्व आज पीछे चलता है 

पंख मिले इसके सपनों को !


जहाँ कदम रखे ना किसी ने 

दूर चाँद को छू कर आया, 

देश की सीमाएँ सुरक्षित 

दुश्मन जिसको भेद न पाया !


हरित ऊर्जा में है अग्रिम 

पर्यावरण की अति परवाह, 

विकसित होने की भारत के 

जर्रे-जर्रे में भरी चाह ! 


अध्यात्म का मार्ग दिखलाता 

योग सभी को सिखलाया है, 

संपन्नता व समृद्धि में भी 

पहले पाँच में यह आया है !


लेते हैं संकल्प आज, हर 

 क्षमता का उपयोग करेंगे, 

भारत के बढ़ते कदमों को 

कभी न पीछे हटने देंगे !


बुधवार, अगस्त 13

प्रकृति के सान्निध्य में

प्रकृति के सान्निध्य में 

भोर की सैर 


श्रावण पूर्णिमा की सुहानी भोर 

 छाये आकाश पर बादल चहूँ ओर 

प्रकृति प्रेमी एक छोटे से समूह ने 

कब्बन पार्क में एक साथ कदम बढ़ाये 

जो दिल में एक नये अनुभव का 

सपना संजोकर थे आये !


हरियाली से भरे झुरमुट 

और पंछियों के कलरव में 

एक सुंदर कविता से आगाज़ हुआ 

हर दिल में सुकून जागा 

और कुदरत के साथ होने का अहसास हुआ ! 


सम्मुख था आस्ट्रेलियन पाम

जिसे कैप्टन कुक पाइन ट्री भी कहते हैं 

जो झुक जाते हैं भूमध्य रेखा की ओर 

दुनिया में चाहे कहीं भी रहते हैं 

हर किसी ने जब उसके तने को छुआ था

शायद उस पल में  

एक अनजाना सा रिश्ता उससे बन गया था !


फिर बारी आयी आकाश मल्लिका की 

जिसकी भीनी ख़ुशबू से सारा आलम महका था !


वृक्षों में मैं पीपल हूँ, कृष्ण ने कहा था 

इसके नीचे ही बुद्ध को ज्ञान हुआ था 

पीपल में इतिहास और पुराण छिपे हैं 

बरगद के पैर चारों दिशाओं में बढ़े हैं 

घेर लेता यह भूमि को, अपनी जटाओं से 

कभी उग जाता किसी अन्य पेड़ की शाखाओं पे 

मिट जाता शरण देने वाला 

बस जाता मेहमान

बनियों की बैठकें 

हुआ करती रही होंगी इसके नीचे 

तभी नाम पाया है बैनियान !


ब्रह्मा ने किया था विश्राम 

सट शाल्मली के तने से, 

सेमल की कोमल रूई का 

जन्मदाता है ये !


जलीय भूमि के पौधों की दुनिया अलग थी 

हरियाली चप्पे-चप्पे पर 

जल को ढके थी !


चीटियों के घोसलें शाख़ों पर लगे देखे 

जब रोमांच से भरे उनके किस्से सुने 

 अनोखे राज जाने तब कुदरत के !


अरबों वर्ष पुरानी चट्टानें भी वहाँ हैं 

डायनासोर के विलुप्त होने की जो गवाह हैं 

श्वेत मकड़ियाँ श्वेत तने पर 

नज़र नहीं आती हैं 

शायद इस तरह शिकार होने से

 ख़ुद को बचाती हैं 

वृक्षों और कीटों का संसार निराला है 

जिसने जरा झाँका इसके भीतर 

मन में हुआ ज्ञान का उजाला है ! 


शनिवार, अगस्त 9

चलते जाना ही है मंज़िल

चलते जाना ही है मंज़िल 


भेद-भाव सारे ऊपर हैं 

नीचे सम-रसता की धारा, 

जाति, धर्म ओढ़े ऊपर से 

नहीं बनें वे दुर्गम कारा !


कलम हाथ में अगर न थामी 

शब्दों को दे कौन सहारा, 

यादों की कंदील जल रही 

पथ पर करती सहज उजारा ! 


चलते जाना ही है मंज़िल 

दूर कहाँ है? निकट किनारा 

दिल की दिल में ही रह जाती  

देखो किसी ने पुन: पुकारा !


बटन दबाते आती बिजली 

जगमग जैसे घर हो सारा, 

याद ह्रदय में पावन जिसने 

दिपदिप मन का आँगन बारा ! 


बुधवार, अगस्त 6

दुनिया तो बस इक दर्पण है

दुनिया तो बस इक दर्पण है


फूलों की सुवास बिखरायें 

या फिर तीखे बाण चलायें,

शब्द हमारे, हम ही सर्जक 

हमने ही तो वे उपजाए !


चेहरा भी व तन का हर कण 

रचना सदा हमारी अपनी, 

 अस्वस्थ हो तन या निरोगी 

ज़िम्मेदारी ख़ुद ही लेनी ! 


डर लगता है, गर्हित  दुनिया 

हम ही भीतर कहते आये,

अपने ही हाथों क़िस्मत में 

दुख के जंगल बोते आये !


कभी लोभवश, कभी द्वेषवश

कभी क्रोध के वश हो जाते, 

मन के इस सुंदर उपवन को 

पल भर में रौंद चले जाते !


कोई नहीं है शत्रु बाहर 

ख़ुद ही काफ़ी हैं इस ख़ातिर, 

दुनिया तो बस इक दर्पण है 

‘वही’ हो रहा इसमें ज़ाहिर !


शनिवार, अगस्त 2

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

कोई कहीं तलाश न करता 

भीतर न सवाल कोई शेष, 

नहीं राग अब सुख का उर में 

रह नहीं गया दुखों से द्वेष !


एक खेल सा जीवन लगता 

 अब न मोह में डाले माया,

एक अनंत मिला है बाहर 

एक शून्य भीतर जग आया !


इस पल में ही छुपा काल है 

एक बिंदु में सिंधु समाया, 

कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं 

इसी पिंड में उसको पाया !


जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

चारों ओर हवा सा बिखरा, 

सुमिरन की सुवास इक हल्की 

श्वासों से जाता है छितरा !


शुक्रवार, अगस्त 1

है और नहीं

है और नहीं 

जो ‘है’ 

वह कहने में नहीं आता 

जो ‘नहीं है’ 

वह दिल में नहीं समाता 

जो ‘होकर’ भी ‘न हो’ जाये 

जो ‘न होकर’ भी दिल को लुभाये 

वही तो सत्य का आयाम है 

जहाँ मौसमी नहीं 

तृप्ति के शाश्वत फूल खिलते हैं 

ठहर जाता है मन का अश्व 

हठात् और भौंचक 

तकता है 

निर्निमेष 

जहाँ मौन का साम्राज्य है 

खोल देती है प्रकृति 

अपने राज 

जाया जाता है 

जहाँ बेआवाज़ !


सोमवार, जुलाई 28

अंश

अंश 

सुबह-सुबह जगाया उसने 

कोमलता से, 

छूकर मस्तक को,

जैसे माँ जगाती है 

अनंत प्रेम भरे अपने भीतर 

याद दिलाने, तुम कौन हो ?

उसी के एक अंश 

उसके  प्रिय और शक्ति से भरे  

बन सकते हो, जो चाहो 

रास्ता खुला है, 

जिस पर चला जा सकता है 

 ऊपर से बहती शांति की धारा को 

धारण करना है 

जिसकी किरणें छू रही हैं

 मन का पोर-पोर 

अंतर के मंदिर में 

अनसुने घंटनाद होते हैं 

  जलती है ज्योति

  बिन बाती बिन तेल 

हो तुम चेतन 

इस तरह, कि अंश हो

उसी अनंत का !


शुक्रवार, जुलाई 25

गूँज किसी निर्दोष हँसी की

गूँज किसी निर्दोष हँसी की 


खन-खन करती पायलिया सी 

मधुर रुनझुनी घुँघरू वाली, 

खिल-खिल करती हँसी बिखरती 

ज्यों अंबर से वर्षा होती !

 

अंतर से फूटे ज्यों झरना 

अधरों से बिखरे ज्यों नगमा,

कानों को भी भरे हर्ष से 

अंतर को भी गुदगुद करती !

 

गूँज किसी निर्दोष हँसी की 

याद बनी इक  दिल में बसती,

कभी भिगोती आँखें बरबस 

कभी हृदय को भी नम करती !


मंगलवार, जुलाई 22

सत्य और भ्रम

सत्य और भ्रम 


माना कदम-कदम पर बाधायें हैं 

मोटी-मोटी रस्सियों से अवरुद्ध है पथ

आसक्ति के जालों में क़ैद 

मन आदमी का 

न जाने कितने भयों से है ग्रस्त  

 जो प्रकट हो जाते हैं स्वप्नों में 

ज्ञान की तलवार से काटना होगा 

रस्सी कितनी भी मोटी हो 

एक भ्रम है 

सत्य सूर्य सा चमक रहा है 

समाधि के क्षणों में 

उसे मन में उतारना होगा 

हर भय से मुक्ति पाकर ?

नहीं, सत्य में जागकर 

स्वयं को पाना होगा !