जीवन एक अदृश्य ज्योति सा
कोई कहीं तलाश न करता
भीतर न सवाल कोई शेष,
नहीं राग अब सुख का उर में
रह नहीं गया दुखों से द्वेष !
एक खेल सा जीवन लगता
अब न मोह में डाले माया,
एक अनंत मिला है बाहर
एक शून्य भीतर जग आया !
इस पल में ही छुपा काल है
एक बिंदु में सिंधु समाया,
कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं
इसी पिंड में उसको पाया !
जीवन एक अदृश्य ज्योति सा
चारों ओर हवा सा बिखरा,
सुमिरन की सुवास इक हल्की
श्वासों से जाता है छितरा !
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