शनिवार, अगस्त 2

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

कोई कहीं तलाश न करता 

भीतर न सवाल कोई शेष, 

नहीं राग अब सुख का उर में 

रह नहीं गया दुखों से द्वेष !


एक खेल सा जीवन लगता 

 अब न मोह में डाले माया,

एक अनंत मिला है बाहर 

एक शून्य भीतर जग आया !


इस पल में ही छुपा काल है 

एक बिंदु में सिंधु समाया, 

कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं 

इसी पिंड में उसको पाया !


जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

चारों ओर हवा सा बिखरा, 

सुमिरन की सुवास इक हल्की 

श्वासों से जाता है छितरा !


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें