शनिवार, अगस्त 9

चलते जाना ही है मंज़िल

चलते जाना ही है मंज़िल 


भेद-भाव सारे ऊपर हैं 

नीचे सम-रसता की धारा, 

जाति, धर्म ओढ़े ऊपर से 

नहीं बनें वे दुर्गम कारा !


कलम हाथ में अगर न थामी 

शब्दों को दे कौन सहारा, 

यादों की कंदील जल रही 

पथ पर करती सहज उजारा ! 


चलते जाना ही है मंज़िल 

दूर कहाँ है? निकट किनारा 

दिल की दिल में ही रह जाती  

देखो किसी ने पुन: पुकारा !


बटन दबाते आती बिजली 

जगमग जैसे घर हो सारा, 

याद ह्रदय में पावन जिसने 

दिपदिप मन का आँगन बारा ! 


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