मंगलवार, अक्तूबर 5

सहज प्रेम

सहज प्रेम

सहज प्रेम जीवन में आये, कैसी उलटफेर कर जाये

जो भी सच लगता था पहले
स्वप्न सरीखा उसे बनाता
छुपा हुआ भीतर जो सुख है
खोल आवरण बाहर लाता

जैसे कोई दुल्हन घूंघट, आहिस्ता से रही उठाये

कुछ होने का जो भ्रम पाला
शून्य बनाकर उसे मिटाता
पत्थर सम जो अंतर्मन था
बना मोम उसको पिघलाता

कैसे अद्भुत खेल रचाए, उथलपुथल जीवन में आये

हर पल नया नया सा दर्शन
अद्भुत है उस रब का वर्तन
हरि अनंत हरि कथा अनन्ता
यूँ ही संत नहीं किये समर्पण

नित नूतन वह परम प्रेम है, पल पल नया-नया सच लाए

ऊपर से दिखता है जो भी
भीतर कितने भेद समोए
जैसे कोई कुशल चितेरा
छुपा हुआ नव रंग भिगोये

या फिर नर्तक एक अनूठा, हर क्षण नयी मुद्रा दिखलाये

भीतर कोई है, मार्ग दो
बाहर आने को अकुलाता
फूट रहा जो रक्त गुलाल
उत्सुक तुम्हें लगाना चाहता

अहो ! सुनो यह स्वर सृष्टि के, नव गीत नव छंद सुनाये

अनिता निहालानी
५ अक्टूबर २०१०

3 टिप्‍पणियां:

  1. अनीता जी,

    मैं तो आपका प्रशंसक बन गया हूँ .........अध्यात्म की उन अधिकतम ऊँचाइयों तक ले गयी ये कविता .........और हिंदी के आपके ज्ञान को मैं नमन करता हूँ |

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  2. जो भी सच लगता था पहले
    स्वप्न सरीखा उसे बनाता
    छुपा हुआ भीतर जो सुख है
    खोल आवरण बाहर लाता

    जैसे कोई दुल्हन घूंघट, आहिस्ता से रही उठाये

    कुछ होने का जो भ्रम पाला
    शून्य बनाकर उसे मिटाता
    पत्थर सम जो अंतर्मन था
    बना मोम उसको पिघलाता


    man ki gahraayiyon ko mapta hua, aasman ki uchaaiyon ko uski aukaat batlata ek aisi rachna jiski vyapakta, jiska arth aur nihitaarth is vyaapak shabd se bhi badi hai.

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  3. इमरान जी, सारी प्रशंसा और नमन उस एक परमेश्वर को ही जाते हैं,जिसकी कृपा अनंत है!

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