गुरुवार, जुलाई 9

इक अनंत आकाश छुपा है

इक अनंत आकाश छुपा है 

इक अनंत आकाश छुपा है 
ऋतु बासन्ती बाट जोहती, 
अंतर की गहराई में ही 
छिपा सिंधु का अनुपम मोती !

दिल तक जाना है दिमाग से 
भाव जगे, छूटें उलझन से, 
कुशल-क्षेम का राग मिटे अब 
मुक्ति पा लें सभी अभाव से !

मिटे नहीं जब खुद से दूरी
दिखे आवरण, उलझा आशय,
उस अनाम में अटल प्रीत हो 
कदम-कदम पर मिले आश्रय ! 



9 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार
    (10-07-2020) को
    "बातें–हँसी में धुली हुईं" (चर्चा अंक-3758)
    पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"

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  2. मिटे नहीं जब खुद से दूरी
    दिखे आवरण, उलझा आशय,
    सुन्दर कविता

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  3. उस अदृश्य अनाम से प्रीति हो जाए तो जीवन सँवर जाए . वाह

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