रविवार, जुलाई 12

भय

भय 


भयभीत मन
 कंपता है पीपल के पत्ते की तरह 
हर आशंका के हल्के से झोंके पर 
डोल जाती है उसकी आस्था भी 
भय हर लेता है 
सारी स्थिरता और सौंदर्य अंतर का 
एक सूक्ष्म विषाणु से डरी हुई है आज मानवता
जो प्राणघातक न भी होता 
पर भयाक्रांत मन 
रोक देता है ऊर्जा का प्रवाह अपने ही भीतर
उसकी मति जकड़ जाती है ज्यों 
सद्विचार का प्रवाह रुक जाता है 
बस एक ही विचार 
खोल बना लेता है चारों ओर
भय ही नाश करता है कुछ लोगों का 
विषाणु नहीं 
सम्भवतः वे खो जाते है बेहोशी या तन्द्रा में 
भय से बचने के लिए 
जैसे शुतुरमुर्ग गड़ा लेता है 
अपनी गर्दन रेत में 
महामारी कुछ को लेने आती है 
पर उसका भय अनेकों को ले जाता है ! 

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